महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-28

द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णव धर्म पर्व)

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महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-28 का हिन्दी अनुवाद


वैश्वदेव आदि कर्मों से जो देवताओं के निमित्त हवन किया जाता है, उसे विद्वान् पुरुष ‘हुत’ कहते हैं। दान दी हुई वस्‍तु को ‘अहुत’ कहते हैं। ब्राह्मणों को भोजन कराने का नाम ‘प्रहुत’ है। राजेन्‍द्र! प्राणाग्‍निहोत्र की विधि से जो प्राणों को पाँच ग्रास अपर्ण किये जाते हैं, उनकी ‘प्राशित’ संज्ञा है तथा गौ आदि प्राणियों की तृप्‍ति के लिये अन्‍न की बलि दी जाती है, उसी का नाम बलिदान है। इन पांच कर्मों को पाकयज्ञ कहते हैं। कितने ही विद्वान इन पाक यज्ञों को ही पंचमहायज्ञ कहते हैं; किन्‍तु दूसरे लोग, जो महायज्ञ के स्‍वरूप को जानने वाले हैं, ब्रह्मयज्ञ आदि को ही पंचमहायज्ञ मानते हैं। ये सभी सब प्रकार से महायज्ञ बतलाये गये हैं। घर पर आये हुए भूखे ब्राह्मण को यथाशक्‍ति निराश नहीं लौटाना चाहिये। इसलिये विद्वान द्विज को चाहिये कि वह प्रतिदिन स्‍नान करके इन यज्ञों का अनुष्‍ठान करे। इन्‍हें किये बिना भोजन करने वाला द्विज प्रायश्चित्त का भागी होता है।

युधिष्ठिर ने कहा- देवदेव! आप दैत्‍यों के विनाशक और देवताओं के स्‍वामी हैं। जनार्दन! अपने इस भक्त को स्‍नान करने की विधि बताइये।

श्रीभगवान बोले- पाण्‍डुनन्‍दन! जिस विधि के अनुसार स्‍नान करने से द्विजगण समस्‍त पापों से छूट जाते हैं, उस परम पापनाशक विधि का पूर्ण रूप से श्रवण करो। मिट्टी, गोबर, तिल, कुशा और फूल आदि शास्‍त्रोक्‍त सामग्री लेकर जल के समीप जाये। श्रेष्‍ठ द्विज को उचित है कि वह नदी में स्‍नान करने के पश्‍चात् और किसी जल में न नहाये। अधिक जल वाला जलाशय उपलब्‍ध हो तो थोड़े-से जल में कभी स्‍नान न करे। ब्राह्मण को चाहिये कि जल के निकट जाकर शुद्ध और मनोरम जगह पर मिट्टी और गोबर आदि सामग्री रख दे। तथा पानी से बाहर ही प्रयत्‍नपूर्वक अपने दोनों पैर धोकर उसके जल को नमस्‍कार करे।

पाण्‍डुनन्‍दन! जल सम्‍पूर्ण देवताओं का तथा मेरा भी स्‍वरूप है; अत: उस पर प्रहार नहीं करना चाहिये। जलाशय के जल से उसके किनारे भूमि को धोकर साफ करे। फिर बुद्धिमान पुरुष पानी में प्रवेश करके एक बार सिर्फ डुबकी लगावे, अंगों की मैल न छुड़ाने लगे। इसके बाद पुन: आचमन करे। हाथ का आकार गाय के कान की तरह बनाकर उससे तीन बार जल पीये। फिर अपने पैरों पर जल छिड़क कर दो बार मुख में जल का स्‍पर्श करे। तदनन्‍तर गले के ऊपरी भाग में स्‍थित आंख, कान और नाक आदि समस्‍त इन्‍द्रियों का एक-एक बार जल से स्‍पर्श करे। फिर दोनों भुजाओं का स्‍पर्श करने के पश्‍चात हृदय और नाभि का स्‍पर्श भी करे। इस प्रकार प्रत्‍येक अंग में जल का स्‍पर्श कराकर फिर मस्‍तक पर जल छिड़के। इसके बाद ‘आप: पुनन्‍तु[1]’ मंत्र पढ़कर फिर आचमन करे अथवा आचमन के समय ओंकार और व्‍याहृतियों सहित ‘सदसम्‍पतिम्’[2] इस ऋचा का पाठ करें। आचमन के बाद मिट्टी लेकर उसके तीन भाग करे और ‘इदं विष्‍णु:’[3] इस मंत्र को पढ़कर उसे क्रमश: ऊपर के, मध्‍य के तथा नीचे के अंगों में लगावे। तत्पश्चात् वारुण-सूक्‍तों से जल को नमस्‍कार करके स्‍नान करे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ॐ आप: पुनंतु पृथिवीं पृथिवी पूता पुनातु माम्॥
    पुनंतु ब्रह्मणस्पातिर्ब्रह्मपूता पुनातु माम्
    यदुच्छिष्टमभोज्यं च यद्वा दुश्चरित मम्।
    सर्व पुनंतु मामपोऽसतां च प्रतिग्रह स्वाहा (तै. आ. प्र. 10।23)

  2. सदसस्पतिम द्भुम्प्रियभिंद्रस्य
    सनिम्मेधा मयासिषस्वाह (यजु. अ. 32 मं 13)

  3. इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम। समूढ्मस्यापर सुरे स्वाहा

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