महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 90 श्लोक 81-95

नवतितम (90) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: नवतितम अध्याय: श्लोक 81-95 का हिन्दी अनुवाद


ऐसा कहकर ब्राह्मण ने उसके हिस्‍से का भी सत्‍तू लेकर अतिथि को दे दिया। इससे वह ब्राह्मण उन उंछवृत्तिधारी साधु महात्‍मा पर बहुत संतुष्ट हुआ। वास्‍तव में उस श्रेष्‍ठ द्विज के रूप में मानव-विग्रहधारी साक्षात धर्म ही वहाँ उपस्‍थित थे। वे प्रवचनकुशल धर्म संतुष्‍ट चित्त होकर उन उंञ्छवृत्‍तिधारी श्रेष्‍ठ ब्राह्मण से इस प्रकार बोले- ‘द्विजश्रेष्‍ठ! तुमने अपनी शक्‍ति के अनुसार धर्मपूर्वक जो न्‍यायोपार्जित शुद्ध अन्‍न का दान दिया है, इससे तुम्‍हारे ऊपर मैं बहुत प्रसन्‍न हूँ। अहो! स्‍वर्गलोक में निवास करने वाले देवता भी वहाँ तुम्‍हारे दान की घोषणा करते हैं। देखो, आकाश से भूतल पर यह फूलों की वर्षा हो रही है। देवर्षि, देवता, गन्धर्व तथा और भी जो देवताओं के अग्रणी पुरुष हैं, वे और देवदूतगण तुम्‍हारे दान से विस्‍मित हो तुम्‍हारी स्तुति करते हुए खड़े हैं।

द्विजश्रेष्ठ! ब्रह्मलोक में विचरने वाले जो ब्रह्मर्षिगण विमानों में रहते हैं, वे भी तुम्‍हारे दर्शन की इच्‍छा रखते हैं; इसलिये तुम स्‍वर्गलोक में चलो। तुमने पितृलोक में गये हुए अपने समस्‍त पितरों का उद्धार कर दिया। अनेक युगों तक भविष्‍य में होने वाली जो संतानें हैं, वे भी तुम्‍हारे पुण्‍य-प्रताप से तर जायंगी। अत: ब्रह्मन! तुम अपने ब्रह्मचर्य, दान, यज्ञ, तप तथा संकरता रहित धर्म के प्रभाव से स्‍वर्गलोक में चलो। उत्तम व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मण शिरोमणे! तुम उत्तम श्रद्धा के साथ तपस्या करते हो; इसलिये देवता तुम्‍हारे दान से अत्‍यंत संतुष्‍ट हैं। इस प्राण-संकट के समय भी यह सब सत्‍तू तुमने शुद्ध हृदय से दान किया है; इसलिये तुमने उस पुण्‍य कर्म के प्रभाव से स्‍वर्गलोक पर विजय प्राप्‍त कर ली है।

भूख मनुष्‍य की बुद्धि को चोपट कर देती है। धार्मिक विचारों को मिटा देती है। क्षुधा से ज्ञान लुप्‍त हो जाने के कारण मनुष्‍य धीरज खो देता है। जो भूख को जीत लेता है, वह निश्‍चय ही स्‍वर्ग पर विजय पाता है। जब मनुष्‍य में दान विषयक रुचि जाग्रत होती है, तब उसके धर्म का ह्रास नहीं होता। तुमने पत्‍नी के प्रेम और पुत्र के स्‍नेह पर भी दृष्‍टिपात न करके धर्म को ही श्रेष्‍ठ माना है और उसके सामने भूख-प्‍यास को भी कुछ नहीं गिना है। मनुष्‍य के लिये सबसे पहले न्‍यायपूर्वक धन की प्राप्‍ति का उपाय जानना ही सूक्ष्‍म विषय है। उस धन को सत्‍पात्र की सेवा में अर्पण करना उससे भी श्रेष्‍ठ है।

साधारण समय में दान देने की अपेक्षा उत्तम समय पर दान देना और भी अच्‍छा है; किंतु श्रद्धा का महत्त्व काल से भी बढ़कर है। स्‍वर्ग का दरवाजा अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍म है। मनुष्‍य मोहवश उसे देख नहीं पाते हैं। उस स्‍वर्ग द्वार की जो अर्गला (किल्‍ली) है, वह लोभरूपी बीज से बनी हुई है। वह द्वार राग के द्वारा गुप्‍त है, इसीलिये उसके भीतर प्रवेश करना बहुत ही कठिन है। जो लोग क्रोध को जीत चुके हैं, इन्‍द्रियों को वश में कर चुके हैं, वे यथाशक्‍ति दान देने वाले तपस्‍वी ब्राह्मण ही उस द्वार को देख पाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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