महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 90 श्लोक 34-49

नवतितम (90) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: नवतितम अध्याय: श्लोक 34-49 का हिन्दी अनुवाद


'वे भोजन के लिये अभी बैठे ही थे कि कोई ब्राह्मण अतिथि उनके यहाँ आ पहुँचा। उस अतिथि को आया देख वे मन-ही-मन बहुत प्रसन्‍न हुए। उस अतिथि को प्रणाम करके उन्‍होंने उससे कुशल-मंगल पूछा। ब्राह्मण-परिवार के सब लोग विशुद्ध चित्त, जितेन्‍द्रिय, श्रद्धालु, मन को वश में रखने वाले, दोष दृष्‍टि से रहित, क्रोधहीन, सज्जन, ईर्ष्‍यारहित और धर्मज्ञ थे। उन श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों ने अभिमान, मद और क्रोध को सर्वथा त्‍याग दिया था। क्षुधा से कष्‍ट पाते हुए उस अतिथि ब्राह्मण को अपने ब्रह्मचर्य और गौत्र का परस्‍पर परिचय देते हुए वे कुटी में ले गये। तत्‍पश्‍चात वहाँ उञ्छवृत्ति वाले ब्राह्मण ने कहा- ‘भगवान! अनघ! आपके लिये ये अर्घ्य, पाद्य और आसन मौजूद हैं तथा न्‍यायपूर्वक उपार्जित किये हुए ये परम पवित्र सत्‍तू आपकी सेवा में प्रस्‍तुत हैं। द्विजश्रेष्‍ठ! मैंने प्रसन्‍नतापूर्वक इन्‍हें आपको अर्पण किया है। आप स्‍वीकार करें।’

राजेन्‍द्र! ब्राह्मण के ऐसा कहने पर अतिथि ने एक पाव सत्‍तू लेकर खा लिया; परंतु उतने से वह तृप्‍त नहीं हुआ। उस उञ्छवृत्‍ति वाले द्विज ने देखा कि ब्रह्मण अतिथि तो अब भी भूखे ही रह गये हैं। तब वे उसके लिये आहार का चिन्‍तन करने लगे कि यह ब्राह्मण कैसे संतुष्‍ट हो? तब ब्राह्मण की पत्‍नी ने कहा- ‘नाथ! यह मेरा भाग इन्‍हें दे दीजिये, जिससे ये ब्राह्मण देवता इच्‍छानुसार तृप्‍ति लाभ करके यहाँ पधारें।' अपनी पतिव्रता पत्‍नी की यह बात सुनिकर उन द्विज श्रेष्‍ठ ने उसे भूखी जानकर उसके दिये हुए सत्‍तू को लेने की इच्‍छा नहीं की। उन विद्वान ब्राह्मण शिरोमणि अपने ही अनुमान से यह जान लिया कि मेरी वृद्धा स्‍त्री स्‍वयं भी क्षुधा से कष्‍ट पा रही है, थकी है और अत्‍यन्‍त दुर्बल हो गयी है। इस तपस्‍विनी के शरीर में चमड़े से ढकी हुई हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया है और यह कांप रही है।

उसकी अवस्‍था पर दृष्‍टिपात करके उन्‍होंने पत्‍नी से कहा- ‘शोभने! अपनी स्‍त्री की रक्षा और पालन-पोषण करना कीट-पतंग और पशुओं का भी कर्तव्‍य है; अत: तुम्‍हें ऐसी बात नहीं करनी चाहिये। जो पुरुष होकर भी स्‍त्री के द्वारा अपना पालन-पोषण और संरक्षण करता है, वह मनुष्‍य दया का पात्र है। वह उज्‍ज्‍वल कीर्ति से भ्रष्‍ट हो जाता है और उसे उत्‍तम लोकों की प्राप्‍ति नहीं होती। धर्म, काम और अर्थ-सम्‍बन्‍धी कार्य, सेवा-शुश्रूषा तथा वंश परम्‍परा की रक्षा-ये सब स्‍त्री के ही अधीन हैं। पितरों का तथा अपना धर्म भी पत्‍नी के ही आश्रित है। जो पुरुष स्‍त्री की रक्षा करना अपना कर्तव्‍य नहीं मानता अथवा जो स्‍त्री की रक्षा करने में असमर्थ है, वह संसार में महान अपयश का भागी होता है और परलोक में जाने पर उसे नरक में गिरना पड़ता है।’ पति के ऐसा कहने पर ब्राह्मणी बोली- ‘ब्रह्मन! हम दोनों के अर्थ और धर्म समान हैं, अत: आप मुझ पर प्रसन्‍न हों और मेरे हिस्‍से का यह पाव भर सत्‍तू ले लें (इसे लेकर इसे अतिथि को दे दें)।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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