महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 85 श्लोक 19-35

पंचशीतितम (85) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: पंचशीतितम अध्याय: श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद


वहाँ बने हुए विभिन्‍न शिविरों में प्रवेश करने वाले महामनस्‍वी नरेशों का जो कोलाहल सुनायी पड़ता था, वह समुद्र की गम्‍भीर गर्जना के समान सम्‍पूर्ण आकाश में व्‍याप्‍त हो रहा था। कुरुकुल की वृद्धि करने वाले राजा युधिष्ठिर ने इन नवागत अतिथियों का सत्‍कार करने के लिये अन्न-पान और आलौकिक शय्याओें का प्रबन्‍ध किया। भरतभूषण! धर्मराज युधिष्ठिर ने उन राजाओं की सवारियों के लिये धान, ऊंख और गोरस से भरे–पूरे घर दिये। बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर के उस महायज्ञ में बहुत– से वेदवेत्‍ता मुनिगण भी पधारे थे। पृथ्‍वीनाथ! ब्राह्मणों में जो श्रेष्ठ पुरुष थे, वे सब अपने शिष्‍यों को साथ लेकर वहाँ आये।

कुरुराज युधिष्ठिर ने उन सबको स्‍वागतपूर्वक अपनाया। वहाँ महातेजस्‍वी महाराज युधिष्ठिर दम्‍भ छोड़कर स्‍वयं ही उन सबका विधिवत् सत्‍कार करते और जब तक उनके लिये योग्‍य स्‍थान का प्रबन्‍ध न हो जाता, तब तक उनके साथ-साथ रहते थे। तत्‍पश्‍चात् थवाइयों और अन्‍यान्‍य शिल्‍पियों (कारीगरों) ने आकर राजा युधिष्ठिर को यह सूचना दी कि यज्ञ मण्‍डप का सारा कार्य पूरा हो गया। सब कार्य पूरा हो गया। यह सुनकर आलस्‍य-रहित धर्मराज राजा युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ बहुत प्रसन्‍न हुए। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- राजन! वह यज्ञ आरम्‍भ होने पर बहुत- से प्रवचन कुशल और युक्‍तिवादी विद्वान, जो एक-दूसरे को जीतने की इच्‍छा रखते थे, वहाँ अनेक प्रकार से तर्क की बातें करने लगे।

भारत! यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये आये हुए राजा लोग घूम-घूम कर भीमसेन के द्वारा तैयार कराये हुए उस यज्ञ मण्‍डप की उत्तम निर्माण कला एवं सुन्‍दर सजावट देखने लगे। यह मण्‍डप देवराज इन्‍द्र की यज्ञशाला के समान जान पड़ता था। उन्‍होंने वहाँ सुवर्ण के बने हुए तोरण, शय्या, आसन, विहारस्‍थान तथा बहुत- से रत्‍नों के ढेर देखे। घड़े, बर्तन, कड़ाहे, कलश और बहुत–से कटोरे भी उनकी दृष्‍टि में पड़े। उन पृथ्‍वी पत्तियों ने वहाँ कोई भी ऐसा सामान नहीं देखा, जो सोने का बना हुआ न हो। शास्‍त्रोक्‍त विधि के अनुसार जो काष्‍ठ के यूप बने हुए थे, उनमें भी सोना जड़ा हुआ था।

वे सभी यूप यथा समय विधिपूर्वक बनाये गये थे, जो देखने में अत्‍यन्‍त तेजोमय जान पड़ते थे। प्रभो! संसार के भीतर स्‍थल और जल में उत्‍पन्न होने वाले जो कोई पशु देखे या सुने गये थे, उन सबको वहाँ राजाओं ने उपस्‍थित देखा। गायें, भैसें, बूढ़ी स्‍त्रियाँ, जल-जन्‍तु, हिंसक जन्‍तु, पक्षी, जरायुज, अण्‍डज, स्‍वदेज, उद्भिज्ज, पर्वतीय तथा सागरतट पर उत्‍पन्न होने वाले प्राणी- ये सभी वहाँ दृष्‍टिगोचर हुए। इस प्रकार वह यज्ञशाला पशु, गौ, धन और धान्‍य सभी दृष्‍टियों से सम्पन्न एवं आनन्द बढ़ाने वाली थी। उसे देखकर समस्‍त राजाओं को बड़ा विस्‍मय हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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