सप्तपंचाशत्तम (57) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: सप्तपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद
जनमेजय! राजा सौदास का संदेश सुनकर विशाललोचना रानी के महाबुद्धिमान उत्तंक मुनि को इस प्रकार उत्तर दिया- ‘ब्राह्मन! आप जो कहते हैं वह ठीक है। अनघ! यद्यपि आप असत्य नहीं बोलते हैं तथापि आप महाराज के ही पास से उन्हीं का संदेश लेकर आये हैं, इस प्रकार बात का कोई प्रमाण आपको लाना चाहिये। मेरे ये दोनों मणिमय कुण्डल दिव्य हैं। देवता, यक्ष और महर्षि लोग नाना प्रकार के उपायों द्वारा इसे चुरा ले जाने की इच्छा रखते हैं और इसके लिये सदा छिद्र ढूँढते रहते हैं। यदि इन कुण्डलों को पृथ्वी पर रख दिया जाय तो नाना लोग इसे हड़प लेंगे। अपवित्र अवस्था में इन्हें धारण करने पर यक्ष उड़ा ले जायँगे और यदि इन्हें पहनकर नींद लेने लग जाय जो देवता लोग बलात छीन ले जायँगे। द्विजश्रेष्ठ! इन छिद्रों में इन दोनों कुण्डलों के खो जाने का भय बना रहता है। जो देवता, राक्षस और नागों की ओर से सावधान होता है, वही इन्हें धारण कर सकता है। द्विजश्रेष्ठ! ये दोनों कुण्डल रात-दिन सोना टपकाते रहते हैं। इतना ही नहीं, रात में ये नक्षत्रों और तारों की प्रभा को छीन लेते हैं। भगवन्! इन्हें धारण कर लेने पर भूख-प्यास का भय कहाँ रह जाता है? विष, अग्नि और हिंसक जन्तुओं से भी कभी भय नहीं होता है। छोटे कद का मनुष्य इन कुण्डलों को पहने तो छोटे हो जाते हैं और बड़ी डील-डौल वाले मनुष्य के पहनने पर उसी के अनुरुप बड़े हो जाते हैं। ऐसे गुणों से युक्त होने के कारण मेरे ये दोनों कुण्डल तीनों लोकों में परम प्रशंसित एवं प्रसिद्ध हैं। अत: आप महाराज की आज्ञा से इन्हें लेने आये हैं, इसका कोई पहचान या प्रमाण लाइये।’
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में उत्तंक मुनि का उपाख्यान विषयक सत्तानवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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