महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 8 श्लोक 17-24

अष्टम (8) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)

Prev.png

महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: अष्टम अध्याय: श्लोक 17-24 का हिन्दी अनुवाद


मैंने गांधारी के साथ वन में जाने का निश्चय किया है; इसके लिये मुझे महर्षि व्यास तथा कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर की भी अनुमति मिल चुकी है। अब आप लोग भी मुझे वन में जाने की आज्ञा दें। इस विषय में आपके मन में कोई अन्यथा विचार नहीं होना चाहिये। आप लोगों का हमारे साथ तो यह प्रेम सम्बन्ध सदा से चला आ रहा है, ऐसा सम्बन्ध दूसरे देश के राजाओं के साथ वहाँ की प्रजा का नहीं होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

निष्पाप प्रजाजन! अब इस बुढ़ापे ने गांधारी सहित मुझको बहुत थका दिया है। पुत्रों के मारे जाने का दुःख भी बना रहता है तथा उपवास करने के कारण भी हम दोनों अधिक दुर्बल हो गये हैं। सज्जनों! युधिष्ठिर के राज्य में मुझे बड़ा सुख मिला है। मैं समझता हूँ कि दुर्योधन के राज्य से भी बढ़कर सुख मुझे प्राप्त हुआ है। एक तो मैं जन्म का अन्धा हूँ, दूसरे बूढ़ा हो गया हूँ, तीसरे मेरे सभी पुत्र मारे गये हैं। महाभाग प्रजाजन! अब आप ही बतायें, वन में जाने के सिवा मेरे लिये दूसरी कौन-सी गति है? इसलिये अब आप लोग मुझे जाने की आज्ञा दें।"

भरतश्रेष्ठ! राजा धृतराष्ट्र की ये बातें सुनकर वहाँ उपस्थित हुए कुरुजांगल निवासी सभी मनुष्यों के नेत्रों से आसुँओं की धारा बह चली और वे फूट-फूटकर रोने लगे। उन सबको शोकमग्न होकर कुछ भी उत्तर न देते देख महातेजस्वी धृतराष्ट्र ने पुनः बोलना आरम्भ किया।


इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिक पर्व के अन्तर्गत आश्रमवास पर्व में धृतराष्ट्र की वन में जाने के लिये प्रार्थना विषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः