महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 3 श्लोक 17-34

तृतीय (3) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)

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महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद


दुर्योधन की बुद्धि में दुष्टता भरी थी। वह जाति भाईयों का भय बढ़ाने वाला था तो भी मुझ मूर्ख ने उसे कौरवों के राजसिंहासन पर अभिषिक्त कर दिया। मैंने वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण की अर्थभरी बातें नहीं सुनीं। मनीषी पुरुषों ने मुझे यह हित की बात बतायी थी कि इस खोटी बुद्धि वाले पापी दुर्योधन को मन्त्रियों सहित मार डाला जाये, इसी में संसार का हित है; किंतु पुत्र स्नेह के वशीभूत होकर मैंने ऐसा नहीं किया। विदुर, भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, महात्मा भगवान व्यास, संजय और गांधारी देवी ने भी मुझे पग-पग पर उचित सलाह दी, किंतु मैंने किसी की बात नहीं मानी। यह भूल मुझे सदा संताप देती रहती है।

महात्मा पांडव गुणवान हैं तथापि उनके बाप-दादों की यह उज्ज्वल सम्पत्ति भी मैंने उन्हें नहीं दी। समस्त राजाओं का विनाश देखते हुए गदाग्रज भगवान श्रीकृष्ण ने यही परम कल्याणकारी माना कि मैं पांडवों का राज्य उन्हें लौटा दूँ; परंतु मैं वैसा नहीं कर सका। इस तरह अपनी की हुई हज़ारों भूलें मैं अपने हृदय में धारण करता हूँ, जो इस समय काँटों के समान कसक पैदा करती हैं। विशेषतः पंद्रहवें वर्ष में आज मुझ दुर्बुद्धि की आँखे खुली हैं और अब मैं इस पाप की शुद्धि के लिये नियम का पालन करने लगा हूँ। कभी चौथे समय (अर्थात दो दिन पर) और कभी आठवें समय अर्थात चार दिन पर केवल भूख की आग बुझाने के लिये मैं थोड़ा-सा आहार करता हूँ। मेरे इस नियम को केवल गांधारी देवी जानती हैं। अन्य सब लोगों को यही मालूम है कि मैं प्रतिदिन पूरा भोजन करता हूँ। लोग युधिष्ठिर के भय से मेरे पास आते हैं। पांडुपत्र युधिष्ठिर मुझे आराम देने के लिये अत्यन्त चिन्तित रहते हैं। मैं और यशस्विनी गांधारी दोनों नियम पालन के व्याज से मृगचर्म पहन कुशासन पर बैठकर मन्त्र जप करते और भूमि पर सोते हैं। हम दोनों के युद्ध में पीठ न दिखाने वाले सौ पुत्र मारे गये हैं, किंतु उनके लिये मुझे दुःख नहीं हैं, क्योंकि वे क्षत्रिय धर्म को जानते थे (और उसी के अनुसार उन्होंने युद्ध में प्राणत्याग किया है)।"

अपने सुहृदों से ऐसा कहकर धृतराष्ट्र राजा युधिष्ठिर से बोले- "कुन्तीनन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मेरी यह बात सुनो। बेटा! तुम्हारे द्वारा सुरक्षित होकर मैं यहाँ बड़े सुख से रहा हूँ। मैंने बड़े-बड़े दान दिये हैं और बारंबार श्राद्ध कर्मों का अनुष्ठान किया है। पुत्र! जिसने अपनी शक्ति के अनुसार उत्कृष्ट पुण्य का अनुष्ठान किया है और जिसके सौ पुत्र मारे गयें हैं, वही यह गांधारी देवी धैर्यपूर्वक मेरी देखभाल करती है। कुरुनन्दन! जिन्होंने द्रौपदी के साथ अत्याचार किया, तुम्हारे ऐश्वर्य का अपहरण किया, वे क्रूरकर्मी मेरे पुत्र क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध में मारे गये हैं। अब उनके लिये कुछ करने की आवश्यकता नहीं दिखायी देती है। वे सब युद्ध में सम्मुख मारे गये हैं, अतः शस्त्रधारियों को मिलने वाले लोकों में गये हैं। राजेन्द्र! अब तो मुझे और गांधारी देवी को अपने हित के लिये पवित्र तप करना है; अतः इसके लिये हमें अनुमति दो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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