महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 37 श्लोक 35-45

सप्तत्रिंश (37) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (नारदागमन पर्व)

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महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 35-45 का हिन्दी अनुवाद


भरतनन्दन! वन में घूमते समय अकस्मात राजा धृतराष्ट्र तथा उन देवियों के मृत शरीर मेरी दृष्टि में पड़े थे। तदनन्तर राजा की मृत्यु का समाचार सुनकर बहुत-से तपोधन उस तपोवन में आये। उन्होंने उनके लिये कोई शोक नहीं किया; क्योंकि उन तीनों की सद्गति के विषय में उनके मन में संशय नहीं था। पुरुषप्रवर पांडव! जिस प्रकार राजा धृतराष्ट्र तथा उन दोनों देवियों का दाह हुआ है, यह सारा समाचार मैंने वहीं सुना था। राजेन्द्र! राजा धृतराष्ट्र, गांधारी और तुम्हारी माता कुन्ती- तीनों ने स्वतः अग्नि संयोग प्राप्त किया था; अतः उनके लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।"

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजा धृतराष्ट्र का यह परलोक गमन का समाचार सुनकर उन सभी महामना पांडवों को बड़ा शोक हुआ। महाराज! उनके अन्तःपुर में उस समय महान आर्तनाद होने लगा। राजा की वैसी गति सुनकर पुरवासियों में भी हाहाकार मच गया। "अहो! धिक्कार है!" इस प्रकार अपनी निन्दा करके राजा युधिष्ठिर बहुत दुःखी हो गये तथा दोनों भुजाएँ ऊपर उठाकर अपनी माता को याद करके फूट-फूट कर रोने लगे। भीमसेन आदि सभी भाई रोने लगे। महाराज! कुन्ती की वैसी दशा सुनकर अन्तःपुर में भी रोने-बिलखने का महान शब्द सुनायी देने लगा। पुत्रहीन बूढ़े राजा धृतराष्ट्र तथा तपस्विनी गांधारी देवी को इस प्रकार दग्ध हुई सुनकर सब लोग बारंबार शोक करने लगे।

भरतनन्दन! दो घड़ी बाद जब रोने-धोने की आवाज़ बंद हुई, तब धर्मराज युधिष्ठिर धैयपूर्वक अपने आँसू पोंछकर नारद जी से इस प्रकार कहने लगे।


इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिक पर्व के अन्तर्गत नारदागमन पर्व में धृतराष्ट्र आदि का दावाग्नि से दाहविषयक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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