महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 28 श्लोक 19-25

अष्टाविंश (28) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)

Prev.png

महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: अष्टाविंश अध्याय: श्लोक 19-25 का हिन्दी अनुवाद


जैसे अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी और आकाश की सत्ता इहलोक और परलोक में भी है, उसी प्रकार धर्म भी उभय लोक में व्याप्त है। राजेन्द्र! धर्म की सर्वत्र गति है तथा वह सम्पूर्ण चराचर जगत को व्याप्त करके स्थित है। जिनके समस्त पाप धुल गये हैं, वे सिद्ध पुरुष तथा देवताओं के देवता ही धर्म का साक्षात्कार करते हैं। जिन्हें धर्म कहते हैं, वे ही विदुर थे और जो विदुर थे, वे ही ये पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर हैं, जो इस समय तुम्‍हारे सामने दास की भाँति खडे़ हैं। महान योगबल से सम्‍पन्‍न और बुद्धिमानों में श्रेष्ठ तुम्हारे भाई महात्मा विदुर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को सामने देखकर इन्हीं के शरीर में प्रविष्ट हो गये हैं।

भरतश्रेष्ठ! अब तुम्हें भी मैं शीघ्र ही कल्याण का भागी बनाऊँगा। बेटा! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि इस समय मैं तुम्हारे संशयों का निवारण करने के लिये आया हूँ। पूर्वकाल के किन्हीं महर्षियों ने संसार में अब तक जो चमत्कारपूर्ण कार्य नहीं किया था, वह भी आज मैं कर दिखाऊँगा। आज मैं तुम्हें अपनी तपस्या का आश्चर्यजनक फल दिखलाता हूँ। निष्पाप महीपाल! बताओ, तुम मुझसे कौन-सी अभीष्ट वस्तु पाना चाहते हो? किसको देखने, सुनने अथवा स्पर्श करने की तुम्हारी इच्छा है? मैं उसे पूर्ण करूँगा।"


इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिक पर्व के अन्तर्गत आश्रमवास पर्व में व्यासवाक्य विषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः