त्रिनवतितम (93) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: त्रिनवतितम अध्याय: श्लोक 13-14 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! इसी सयम तपस्विनी माधवी उधर आ निकली। उसने मृगचर्म से अपने सब अंगों को ढक रखा था। वृद्धावस्था प्राप्त होने पर वह मृगों के साथ विचरती हुई मृगव्रत का पालन कर रही थी। उसकी भोजन-सामग्री और चेष्टा मृगों के ही तुल्य थी। वह मृगों के झुंड के साथ यज्ञ मण्डप में प्रवेश करके अत्यन्त विस्मित हुई और यज्ञीय धूम की सुगन्ध लेती हुई मृगों के साथ वहाँ विचरने लगी। यज्ञशाला में घूम-घूम कर अपने अपराजित पुत्रों को देखती और यज्ञ की महिमा अनुभव करती हुई माधवी बहुत प्रसन्न हुई। उसने देखा, स्वर्गवासी नहुषनन्दन महाराज ययाति आये हैं, परंतु पृथ्वी का स्पर्श नहीं कर रहे हैं (आकाश में ही स्थित हैं)। अपने पिता को पहचानकर माधवी ने उन्हें प्रणाम किया। तब वसुमना ने अपनी तपस्विनी माता से प्रश्न करते हुए कहा। वसुमना बोले- मा! तुम श्रेष्ठ वर्ण की देवी हो। तुमने इन महापुरुष को प्रणाम किया है। ये कौन हैं? कोई देवता हैं या राजा? यदि जानती हो, तो मुझे बताओ। माधवी ने कहा- पुत्रों! तुम सब लोग एक साथ सुन लो- ‘ये मेरे पिता नहुषनन्दन महाराज ययाति हैं। मेरे पुत्रों के सुविख्यात मातामह (नाना) ये ही हैं। इन्होंने मेरे भाई पुरु को राज्य पर अभिषिक्त करके स्वर्ग लोक की यात्रा की थी; परंतु न जाने किस कारण से ये महायशस्वी महाराज पुन: यहाँ आये हैं’। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! माता की यह बात सुनकर वसुमना ने कहा- माँ! ये अपने स्थान से भ्रष्ट हो गये हैं। पुत्र का यह वचन सुनकर माधवी भ्रान्तचित्त हो उठी और दौहित्रों से घिरे हुए अपने पिता से इस प्रकार बोली। माधवी ने कहा- पिता जी! मैंने तपस्या द्वारा जिन लोकों पर अधिकार प्राप्त किया है, उन्हें आप ग्रहण करें। पुत्रों और पौत्रों की भाँति और दौहित्रों का धर्माचरण से प्राप्त किया हुआ धन भी अपने ही लिये है, यह वेदवेत्ता ऋषि कहते हैं; अत: आप हम लोगों के दान एवं तपस्याजनित पुण्य से स्वर्गलोक में जाइये। ययाति बोले- यदि यह धर्मजनित फल है, तब तो इसका शुभ परिणाम अवश्यम्भावी है। आज मुझे मेरी पुत्री तथा महात्मा दौहित्रों ने तारा है। इसलिये आज से पितृ-कर्म (श्राद्ध) में दौहित्र परमपवित्र समझा जायगा। इसमें संशय नहीं कि वह पितरों का हर्ष बढ़ाने वाला होगा। श्राद्ध में तीन वस्तुऐं पवित्र मानी जायंगी- दौहित्र, कुतप और तिल। साथ ही इसमें तीन गुणा भी प्रशंसित होंगे- पवित्रता, अक्रोध और अत्वरा (उतावलेपन का अभाव)। तथा श्राद्ध में भोजन करने वाले, परोसने वाले और (वैदिक या पौराणिक मन्त्रों का पाठ) सुनाने वाले- ये तीन प्रकार के मनुष्य भी पवित्र माने जायेंगे। दिन के आठवें भाग में जब सूर्य का ताप घटने लगता है, उस समय का नाम कुतप है। उसमें पितरों को दिया हुआ दान अक्षय होता है। तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं, कुश राक्षसों से बचाते हैं, श्रोत्रिय ब्राह्मण पंक्ति की रक्षा करते हैं और यदि यतिगण श्राद्ध में भोजन कर लें, तो वह अक्षय हो जाता है। उत्तम व्रत का आचरण करने वाला पवित्र श्रोत्रिय ब्राह्मण श्राद्ध का उत्तम पात्र है। वह जब प्राप्त हो जाय, वही श्राद्ध का उत्तम काल समझना चाहिये। उसको दिया हुआ दान उत्तम काल का दान है। इसके सिवा और कोई उपयुक्त काल नहीं है। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! बुद्धिमान् ययाति उपर्युक्त बात कहकर पुन: अपने दौहित्रों से बोले- ‘तुम सब लोग अवभृथस्थान कर चुके हो। अब महत्त्वपूर्ण कार्य की सिद्धि के लिये शीघ्र तैयार हो जाओ’। अष्टक बोले- राजन्! आप इन रथों में बैठिये और आकाश में ऊपर की ओर बढ़िये। जब समय होगा, तब हम भी आपका अनुसरण करेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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