महाभारत आदि पर्व अध्याय 8 श्लोक 14-27

अष्टम (8) अध्‍याय: आदि पर्व (पौलोम पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: अष्टम अध्याय: श्लोक 14-27 का हिन्दी अनुवाद


एक दिन धर्मात्मा रुरु ने महर्षि के आश्रम में उस प्रमद्वरा को देखा। उसे देखते ही उनका हृदय तत्काल कामदेव के वशीभूत हो गया। तब उन्होंने मित्रों द्वारा अपने पिता भृगुवंशी प्रमति को अपनी अवस्था कहलायी। तदनन्तर प्रमति ने यशस्वी स्थूलकेश मुनि से (अपने पुत्र के लिये) उनकी वह कन्या माँगी। तब पिता ने अपनी कन्या प्रमद्वरा का रुरु के लिये वाग्दान कर दिया और आगामी उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र में विवाह का मुहूर्त निश्चित किया। तदनन्तर जब विवाह का मुहूर्त निकट आ गया, उसी समय वह सुन्दरी कन्या सखियों के साथ क्रीड़ा करती हुई वन में घूमने लगी। मार्ग में एक साँप चौड़ी जगह घेरकर तिरछा सो रहा था। प्रमद्वरा ने उसे नहीं देखा। वह काल से प्रेरित होकर मरना चाहती थी, इसलिये सर्प को पैर से कुचलती हुई आगे निकल गयी। उस समय कालधर्म से प्रेरित हुए उस सर्प ने उस असावधान कन्या के अंग में बड़े जोर से अपने विष भरे दाँत गड़ा दिये।

उस सर्प के डँस लेने पर वह सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ी। उसके शरीर का रंग उड़ गया, शोभा नष्ट हो गयी, आभूषण इधर-उधर बिखर गये और चेतना लुप्त हो गयी। उसके बाल खुले हुए थे। अब वह अपने उन बन्धुजनों के हृदय में विषाद उत्पन्न कर रही थी, जो कुछ ही क्षण पहले अत्यन्त सुन्दरी एंव दर्शनीय थी, वही प्राणशून्य होने के कारण अब देखने योग्य नहीं रह गयी। वह सर्प के विष से पीड़ित होकर गाढ़ निद्रा में सोयी हुई की भाँति भूमि पर पड़ी थी। उसके शरीर का मध्यभाग अत्यन्त कृश था। वह उस अचेतनावस्था में भी अत्यन्त मनोहारिणी जान पड़ती थी। उसके पिता स्थूलकेश ने तथा अन्य तपस्वी महात्माओं ने भी आकर उसे देखा। वह कमल की सी कान्ति वाली किशोरी धरती पर चेष्टा रहित पड़ी थी। तदनन्तर स्वस्त्यात्रेय, महाजानु, कुशिक, शंखमेखल, उद्दालक, कठ, महायशस्वी, श्वेत, भरद्वाज, कौणकुत्स्य, अर्ष्टिषेण, गौतम, अपने पुत्र रुरु सहित प्रमति तथा अन्य सभी वनवासी श्रेष्ठ द्विज दया से द्रवित होकर वहाँ आये। वे सब लोग उस कन्या को सर्प के विष से पीड़ित हो प्राणशून्य हुई देख करुणा वश रोने लगे। रुरु तो अत्यन्त आर्त होकर वहाँ से बाहर चला गया और शेष सभी द्विज उस समय वहीं बैठे रहे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत पौलोम पर्व में प्रमद्वरा के सर्पदंशन से सम्बंध रखने वाला आठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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