महाभारत: आदि पर्व: सप्तसप्ततितम अध्याय: श्लोक 17-23 का हिन्दी अनुवाद
कच ने कहा- 'देवयानी! गुरुपुत्री समझकर ही मैंने तुम्हारे अनुरोध को टाल दिया है; तुममें कोई दोष देखकर नहीं। गुरु जी ने भी इसके विषय में मुझे कोई आज्ञा नहीं दी है। तुम्हारी जैसी इच्छा हो, मुझे शाप दे दो। बहिन! मैं आर्ष धर्म की बात बता रहा था। इस दशा में तुम्हारे द्वारा शाप पाने के योग्य नहीं था। तुमने मुझे धर्म के अनुसार नहीं, काम के वशीभूत होकर आज शाप दिया है, इसलिये तुम्हारे मन में जो कामना है, वह पूरी नहीं होगी। कोई भी ऋषिपुत्र (ब्राह्मणकुमार) कभी तुम्हारा पाणिग्रहण नहीं करेगा। तुमने जो मुझे यह कहा कि तुम्हारी विद्या सफल नहीं होगी, सो ठीक है; किंतु मैं जिसे यह विद्या पढ़ा दूंगा, उसकी विद्या तो सफल होगी ही।'
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! द्विजश्रेष्ठ कच देवयानी से ऐसा कहकर तत्काल बड़ी उतावली के साथ इन्द्रलोक को चले गये। उन्हें आया देख इन्द्रादि देवता बृहस्पति जी की सेवा में उपस्थिति हो कच से यह वचन बोले। देवता बोले- ब्रह्मन्! तुमने हमारे हित के लिये यह बड़ा अद्भुत कार्य किया है, अत: तुम्हारे यश का कभी लोप नहीं होगा और तुम यज्ञ में भाग पाने के अधिकारी होओगे।
इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में ययात्युपाख्यानविषयक सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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