पंचसप्ततितम (75) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: पंचसप्ततितम अध्याय: श्लोक 41-58 का हिन्दी अनुवाद
विषय-भोग की इच्छा विषयों का उपभोग करने से कभी शान्त नहीं हो सकती। घी की आहुति डालने से अधिक प्रज्वलित होने वाली आग की भाँति वह और भी बढ़ती ही जाती है। रत्नों से भरी हुई सारी पृथ्वी, संसार का सारा सुवर्ण, सारे पशु और सुन्दरी स्त्रियां किसी एक पुरुष को मिल जायँ, तो भी वे सब-के-सब उसके लिये पर्याप्त नहीं होंगे। वह और भी पाना चाहेगा। ऐसा समझकर शान्ति धारण करे- भोगेच्छा को दबा दे। जब मनुष्य मन, वाणी और क्रिया द्वारा कभी किसी भी प्राणी के प्रति बुरा भाव नहीं करता, तब वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। जब सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि होने के कारण यह पुरुष किसी से नहीं डरता और जब उससे भी दूसरे प्राणी नहीं डरते तथा जब वह न तो किसी की इच्छा करता है और न किसी से द्वेष ही रखता है, उस समय वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है’। जनमेजय! परमबुद्धिमान् महाराज ययाति ने इस प्रकार भोगों की नि:सारता का विचार करके बुद्धि के द्वारा मन को एकाग्र किया और पुत्र से अपना बुढ़ापा वापस ले लिया। पुरु को अपनी जवानी लौटाकर राजा ने उसे राज्य पर अभिषिक्त कर दिया और भोगों से अतृप्त रहकर ही अपने पुत्र पुरु से कहा- ‘बेटा! तुम्हारे-जैसे पुत्र से ही मैं पुत्रवान् हूँ। तुम्हीं मेरे वंश-प्रवर्तक पुत्र हो। तुम्हारा वंश इस जगत् में पौरव वंश के नाम से विख्यात होगा’। वैशम्पायन जी कहते हैं- नृपश्रेष्ठ! तदनन्तर पुरु का राज्याभिषेक करने के पश्चात राजा ययाति ने अपनी पत्नियों के साथ भृगुतुंग पर्वत पर जाकर सत्कर्मों का अनुष्ठान करते हुए वहाँ बड़ी तपस्या की। इस प्रकार दीर्घकाल व्यतीत होने के बाद स्त्रियों सहित निराहार व्रत करके उन्होंने स्वर्गलोक प्राप्त किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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