महाभारत आदि पर्व अध्याय 74 श्लोक 110-122

चतु:सप्ततितम (74) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: चतु:सप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 110-122 का हिन्दी अनुवाद


दुष्यन्त! माता तो केवल भाथी (धौंकनी) के समान है। पुत्र पिता का ही होता है; क्‍योंकि जो जिसके द्वारा उत्‍पन्न होता है, वह उसी का स्‍वरुप है- इस न्‍याय से पिता ही पुत्र रूप में उत्‍पन्न होता है, अत: दुष्‍यन्‍त! तुम पुत्र का पालन करो। शकुन्तला का अनादर मत करो। पौरव! पुत्र साक्षात अपना ही शरीर है। वह पिता के सम्‍पूर्ण अंगों से उत्‍पन्न होता है। वास्‍तव में वह पुत्र नाम से प्रसिद्ध अपना आत्‍मा ही है। ऐसा ही यह तुम्‍हारा पुत्र भी है। अपने द्वारा ही गर्भ में स्‍थापित किये हुए आत्‍मस्‍वरुप इस पुत्र की तुम रक्षा करो। शकुन्‍तला तुम्‍हारे प्रति अनन्‍य अनुराग रखने वाली धर्म-पत्नी है। इसे इसी दृष्टि से देखो! उसका अनादर मत करो। दुष्‍यन्‍त! स्त्रियां अनुपम पवित्र वस्‍तुऐं हैं, यह धर्मत: स्‍वीकार किया गया है। प्रत्‍येक मास में इनके जो रज:स्राव होता है, वह इनके सारे दोषों को दूर कर देता है। नरदेव! वीर्य का आधान करने वाला पिता ही पुत्र बनता है और वह यमलोक से अपने पितृगण का उद्धार करता है। तुमने ही इस गर्भ का आधान किया था। शकुन्‍तला सत्‍य कहती है। जाया (पत्नी) दो भागों में विभक्‍त हुए पति के अपने ही शरीर को पुत्ररुप में उत्‍पन्न करती है। इसलिये राजा दुष्यन्त तुम शकुन्‍तला से उत्‍पन्न हुए अपने पुत्र का पालन-पोषण करो। अपने जीवित पुत्र को त्‍यागकर जीवन धारण करना बड़े दुर्भाग्‍य की बात है। पौरव! यह महामना बालक शकुन्‍तला और दुष्‍यन्‍त दोनों का पुत्र है। हम देवताओं के कहने से तुम इसका भरण-पोषण करोगे, इसलिये तुम्‍हारा यह पुत्र भरत के नाम से विख्‍यात होगा’।

(वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन!) ऐसा कहकर देवता तथा तपस्‍वी ऋषि शकुन्‍तला को पतिव्रता बतलाते हुए उस पर फूलों की वर्षा करने लगे। पुरुवंशी राजा दुष्‍यन्‍त देवताओं की यह बात सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और पुरोहित तथा मन्त्रियों से इस प्रकार बोले- ‘आप लोग इस देवदूत का कथन भलीभाँति सुन लें। मैं भी अपने इस पुत्र को इसी रुप में जानता हूँ। यदि केवल शकुन्‍तला के कहने से मैं इसे ग्रहण कर लेता, तो सब लोग इस पर संदेह करते और यह बालक विशुद्ध नहीं माना जाता’। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- भारत! इस प्रकार देवदूत के वचन से उस बालक की शुद्धता प्रमाणित करके राजा दुष्‍यन्‍त ने हर्ष और आनन्‍द में मग्‍न हो उस समय अपने उस पुत्र को ग्रहण किया। तदनन्‍तर महराज दुष्‍यन्‍त ने पिता को जो-जो कार्य करने चाहिये, वे सब उपनयन आदि संस्‍कार बड़े आनन्‍द और प्रेम के साथ अपने उस पुत्र के लिये (शास्त्र और कुल की मर्यादा के अनुसार) कराये। और उसका मस्‍तक सूंघकर अत्‍यन्‍त स्नेहपूर्वक उसे हृदय से लगा लिया। उस समय ब्राह्मणों ने उन्‍हें आशीर्वाद दिया और वन्‍दीजनों ने उनके गुण गाये। महाराज ने पुत्र स्‍पर्शजनित परमआनन्‍द को अनुभव किया। दुष्‍यन्‍त ने अपनी पत्नी शकुन्‍तला का भी धर्मपूर्वक आदर-सत्‍कार किया और उसे समझाते हुए कहा- ‘देवी! मैंने तुम्‍हारे साथ जो विवाह-सम्‍बन्‍ध स्‍थापित किया था, उसे साधारण जनता नहीं जानती थी। अत: तुम्‍हारी शुद्धि के लिये ही मैंने यह उपाय सोचा था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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