सप्तषष्टितम (67) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: सप्तषष्टितम अध्याय: श्लोक 116-134 का हिन्दी अनुवाद
राजा जनमेजय! इस प्रकार मैंने तुम्हारे पिता के पिता का जन्म रहस्य बताया है। महाराज! महारथी धृष्टद्युम्न को तुम अग्नि का भाग समझो। शिखण्डी राक्षस से अंश से उत्पन्न हुआ था। वह पहले कन्या रूप में उत्पन्न होकर पुनः पुरुष हो गया था। भरतर्षभ! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि द्रौपदी के जो पांच पुत्र थे, उनके रूप में पांच विश्वेदेवगण ही प्रकट हुए थे। उनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं - प्रतिविध्य, सुतसोम, श्रुतकीर्ति, नकुलनन्दन शतानीक तथा पराक्रमी श्रुतसेन। वसुदेव जी के पिता का नाम था शूरसेन। वे यदुवंश के एक श्रेष्ठ पुरुष थे। उनके पृथा नाम वाली एक कन्या हुई जिससे समान रूपवती स्त्री इस पृथ्वी पर दूसरी नहीं थी। उग्रसेन के फुफेरे भाई कुन्तीभोज सन्तानहीन थे। पराक्रमी शूरसेन ने पहले कभी उनके सामने यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘मैं अपनी पहली सन्तान आपको दे दूंगा’। तदनन्तर सबसे पहले उनके यहाँ कन्या ही उत्पन्न हुई। शूरसेन ने अनुग्रह की इच्छा से राजा कुन्तीभोज को अपनी वह पुत्री पृथा प्रथम सन्तान होने के कारण गोद दे दी। पिता के घर पर रहते समय पृथा को ब्राह्मणों और अतिथियों के स्वागत-सत्कार का कार्य सौंपा गया था। एक दिन उसने कठोर व्रत का पालन करने वाले भयंकर क्रोधी तथा उग्र प्रकृति वाले एक ब्राह्मण महर्षि की, जो धर्म के विषय में अपने निश्चय को छिपाये रखते थे और लोग जिन्हें दुर्वासा के नाम से जानते हैं, सेवा की। वे ऊपर से उग्र स्वभाव के थे परन्तु उनका हृदय महान् होने के कारण सबके द्वारा प्रशंसित था। पृथा ने पूरा प्रयत्न करके अपनी सेवाओं द्वारा मुनि को संतुष्ट किया। भगवान दुवार्सा ने संतुष्ट होकर पृथा को प्रयोग विधि सहित एक मन्त्र का विधिपूर्वक उपदेश किया और कहा- ‘सुभगे! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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