त्रिषष्टितम (63) अध्याय: आदि पर्व (अंशावतरण पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: त्रिषष्टितम अध्याय: श्लोक 63-80 का हिन्दी अनुवाद
मछेरों के आश्रय में रहने के कारण वह पवित्र मुस्कान वाली कन्या कुछ काल तक मत्स्यगन्धा नाम से ही विख्यात रही। वह पिता की सेवा के लिये यमुना जी के जल में नाव चलाया करती थी। एक दिन तीर्थयात्रा के उद्देश्य से सब ओर विचरने वाले महर्षि पराशर ने उसे देखा। वह अतिशय रुप सौन्दर्य से सुशोभित थी। सिद्धों के हृदय में भी उसे पाने की अभिलाषा जाग उठती थी। उसकी हंसी बड़ी मोहक थी, उसकी जांघें कदली की सी शोभा धारण करती थीं। उस दिव्य वसुकुमारी को देखकर परमबुद्धिमान मुनिवर पराशर ने उसके साथ समागम की इच्छा प्रकट की। और कहा- कल्याणी! मेरे साथ संगम करो। वह बोली- 'भगवन! देखिये नदी के आर-पार दोनों तटों पर बहुत से ऋषि खड़े हैं। और हम दोनों को देख रहे हैं। ऐसी दशा में हमारा समागम कैसे हो सकता है?’ उसके ऐसा कहने पर शक्तिशाली भगवान पराशर ने कुहरे की सृष्टि की। जिससे वहाँ का सारा प्रदेश अंधकार से आच्छादित-सा हो गया। महर्षि द्वारा कुहरे की सृष्टि देखकर वह तपस्विनी कन्या आश्चर्यचकित एवं लज्जित हो गयी। सत्यवती ने कहा- भगवन! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं सदा अपने पिता के अधीन रहने वाली कुमारी कन्या हूँ। निष्पाप महर्षे! आपके संयोग से मेरा कन्या भाग (कुमारीपन) दूषित हो जायेगा। द्विजश्रेष्ठ! कन्या भाग दूषित हो जाने पर मैं कैसे अपने घर जा सकती हूँ। बुद्धिमान मुनिश्वर! अपने कन्यापन के कलंकित हो जाने पर मैं जीवित रहना नहीं चाहती। भगवन! इस बात पर भलि-भाँति विचार करके जो उचित जान पड़े, वह कीजिये। सत्यवती के ऐसा कहने पर मुनिश्रेष्ठ पराशर प्रसन्न होकर बोले- ‘भीरु! मेरा प्रिय कार्य करके भी तुम कन्या ही रहोगी। भामिनी! तुम जो चाहो, वह मुझसे वर मांग लो। शुचिस्मिते! आज से पहले कभी भी मेरा अनुग्रह व्यर्थ नहीं गया है’। महर्षि के ऐसा कहने पर सत्यवती ने अपने शरीर में उत्तम सुगन्ध होने का वरदान मांगा। भगवान पराशर ने उसे इस भूतल पर वह मनोवाञ्छित वर दे दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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