त्रिषष्टितम (63) अध्याय: आदि पर्व (अंशावतरण पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: त्रिषष्टितम अध्याय: श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद
जो मनुष्य भूमि तथा रत्न आदि का दान करते हुए सदा देवराज इन्द्र का उत्सव रचायेंगे, वे इन्द्रोत्सव द्वारा इन्द्र का वरदान पाकर उसी उत्तम गति को पा जायेंगे, जिसे भूमिदान आदि के पुण्यों से युक्त मानव प्राप्त करते हैं। इन्द्र के द्वारा उपर्युक्त रुप से सम्मानित चेदिराज वसु ने चेदि देश में ही रहकर इस पृथ्वी का धर्मपूर्वक पालन किया किया। इन्द्र की प्रसन्नता के लिये चेदिराज वसु प्रति वर्ष इन्द्रोत्सव मनाया करते थे। उनके अनन्त बलशाली महापराक्रमी पांच पुत्र थे। सम्राट वसु ने विभिन्न राज्यों पर अपने पुत्रों को अभिषिक्त कर दिया। उनमें महारथी बृहद्रथ मगध देश का विख्यात राजा हुआ। दूसरे पुत्र का नाम प्रत्यग्रह था, तीसरा कुशाम्ब था, जिसे मणिवाहन भी कहते हैं। चौथा मावेल्ल था। पांचवा राजकुमार यदु था, जो युद्ध में किसी से पराजित नहीं होता था। राजा जनमेजय! महातेजस्वी राजर्षि वसु के इन पुत्रों ने अपने-अपने नाम से देश और नगर बसाये। पांचों वसुपुत्र भिन्न-भिन्न देशों के राजा थे और उन्होंने पृथक-पृथक अपनी सनातन वंश परम्परा चलायी। चेदिराज वसु के इन्द्र के दिये हुए स्फटिक मणिमय विमान में रहते हुए आकाश में ही निवास करते थे। उस समय उन महात्मा नरेश की सेवा में गन्धर्व और अप्सराएं उपस्थित होती थीं। सदा ऊपर-ही-ऊपर चलने के कारण उनका नाम ‘राजा उपरिचर’ के रुप में विख्यात हो गया। उनकी राजधानी के समीप शुक्तिमती नदी बहती थी। एक समय कोलाहल नामक सचेतन पर्वत ने कामवश दिव्यरुप धारिणि नदी को रोक लिया। उसके रोकने से नदी की धारा रुक गयी। यह देख उपरिचर वसु ने कोलाहल पर्वत पर अपने पैर से प्रहार करते ही पर्वत में दरार पड़ गयी, जिससे निकलकर वह नदी पहले के समान बहने लगी। पर्वत ने उस नदी के गर्भ से एक पुत्र और एक कन्या, जुड़वी संतान उत्पन्न की थी। उसके अवरोध से मुक्त करने के कारण प्रसन्न हुई नदी ने राजा उपरिचर को अपनी दोनों संतानें समर्पित कर दीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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