द्विषष्टितम (62) अध्याय: आदि पर्व (अंशावतरण पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: द्विषष्टितम अध्याय: श्लोक 38-53 का हिन्दी अनुवाद
इसलिये ब्राह्मणों को भी नियम में स्थिर होकर ही इस कथा का श्रवण करना चाहिये। जो ब्राह्मण श्रीव्यास जी की कही हुई इस पुण्यदायिनी उत्तम भारती कथा का श्रवण करायेंगे और जो मनुष्य इसे सुनेंगे, वे सब प्रकार की चेष्टा करते हुए भी इस बात के लिये शोक करने योग्य नहीं हैं कि उन्होंने अमुक कर्म क्यों किया और अमुक कर्म क्यों नहीं किया। धर्म की इच्छा रखने वाले मनुष्य के द्वारा यह सारा महाभारत इतिहास पूर्णरुप से श्रवण करने योग्य है। ऐसा करने से मनुष्य सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। इस महान् पुण्यदायक इतिहास को सुनने मात्र से ही मनुष्य को जो संतोष प्राप्त होता है, वह स्वर्गलोक प्राप्त कर लेने से भी नहीं मिलता। जो पुण्यात्मा मनुष्य श्रद्धापूर्वक इस अद्भुत इतिहास को सुनता और सुनाता है, वह राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। जैसे ऐश्वर्यपूर्ण समुद्र और महान् पर्वत मेरु दोनों रत्नों की खान कहे गये हैं, वैसे ही महाभारत रत्नस्वरुप कथाओं और उपदेशों का भण्डार कहा जाता है। यह महाभारत वेदों के समान पवित्र और उत्तम है। यह सुनने योग्य तो है ही, सुनते समय कानों को सुख देने वाला भी है। इसके श्रवण से अन्त:करण पवित्र होता और उत्तम शील-स्वाभाव की वृद्धि होती है। राजन! जो वाचक को यह महाभारत दान करता है, उसके द्वारा समुद्र से घिरी हुई सम्पूर्ण पृथ्वी का दान सम्पन्न हो जाता है। जनमेजय! मेरे द्वारा कही हुई इस आनन्ददायिनी दिव्यकथा को तुम पुण्य और विजय की प्राप्ति के लिये पूर्णरुप से सुनो। प्रतिदिन प्रात:काल उठकर इस ग्रन्थ का निर्माण करने वाले महामुनि श्रीकृष्णद्वैपायन ने महाभारत नामक इस अद्भुत इतिहास को तीन वर्षों में पूर्ण किया है। भरतश्रेष्ठ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सम्बन्ध में जो बात इस ग्रन्थ में है, वही अन्यत्र भी है। जो इसमें नहीं है, वह कहीं भी नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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