चत्वारिंश (40) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 21-33 का हिन्दी अनुवाद
श्रृंगी उस दिन आचार्य की आज्ञा लेकर घर को लौट रहा था। रास्ते में उसका मित्र ऋषिकुमार कृश, जो धर्म के लिये कष्ट उठाने के कारण सदा ही कृश (दुर्बल) रहा करता था, खेलता मिला। उसने हँसते-हँसते श्रृंगी ऋषि को उसके पिता के सम्बन्ध में ऐसी बात बतायी, जिसे सुनते ही वह रोष में भर गया। द्विजश्रेष्ठ! मुनिकुमार श्रृंगी क्रोध के आवेश में विनाशकारी हो जाता था। कृश ने कहा- श्रृंगिन! तुम बड़े तपस्वी और तेजस्वी बनते हो, किंतु तुम्हारे पिता अपने कंधे पर मुर्दा सर्प ढो रहे हैं। अब कभी अपनी तपस्या पर गर्व न करना। हम जैसे सिद्ध, ब्रह्मवेत्ता तथा तपस्वी ऋषिपुत्र जब कभी बातें करते हों, उस समय तुम वहाँ कुछ न बोलना। कहाँ है तुम्हारा पौरुष का अभिमान, कहाँ गयीं तुम्हारी वे दर्पभरी बातें? जब तुम अपने पिता को मुर्दा ढोते चुपचाप देख रहे हो। मुनिजन शिरोमणे! तुम्हारे पिता के द्वारा कोई अनुचित कर्म नहीं बना था; इसलिये जैसे मेरे ही पिता का अपमान हुआ हो उस प्रकार तुम्हारे पिता के तिरस्कार से मैं अत्यन्त दुखी हो रहा हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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