त्रिंश (30) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: त्रिंश अध्याय: श्लोक 38-52 का हिन्दी अनुवाद
उग्रश्रवा जी कहते हैं- बृहस्पति जी की यह बात सुनकर देवराज इन्द्र अमृत की रक्षा करने वाले देवताओं से बोले- ‘रक्षकों! महान पराक्रमी और बलवान पक्षी गरुड़ यहाँ से अमृत हर ले जाने को उद्यत हैं। मैं तुम्हें सचेत कर देता हूँ, जिससे वे बलपूर्वक इस अमृत को न ले जा सकें। बृहस्पति जी ने कहा है कि उनके बल की कहीं तुलना नहीं है।' इन्द्र की यह बात सुनकर देवता बड़े आश्चर्य में पड़ गये और यत्नपूर्वक अमृत को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। प्रतापी इन्द्र भी हाथ में वज्र लेकर वहाँ डट गये। मनस्वी देवता विचित्र सुवर्णमय तथा बहुमूल्य वैदूर्य मणिमय कवच धारण करने लगे। उन्होंने अपने अंगों में यथास्थान मजबूत और चमकीले चमड़े के बने हुए हाथ के मोजे आदि धारण किये। नाना प्रकार के भयंकर अस्त्र-शस्त्र भी ले लिये। उन सब आयुधों की धार बहुत तीखी थी। वे देवता सब प्रकार के आयुध युद्ध के लिये उद्यत हो गये। उनके पास ऐसे-ऐसे चक्र थे, जिसमें सब ओर आग की चिंगारियां और धूमसहित लपटें प्रकट होती थीं। उनके सिवा परिव, त्रिशूल, फरसे, भाँति-भाँति की तीखी शक्तियाँ, चमकीले खड्ग और भयंकर दिखायी देने वाली गदाएँ भी थीं। अपने शरीर के अनुरूप इन अस्त्र-शस्त्रों को लेकर देवता डट गये। दिव्य अभिषणों से विभूषित निष्पाप देवगण तेजस्वी अस्त्र-शस्त्रों के साथ अधिक प्रकाशमान हो रहे थे। उनके बल, पराक्रम और तेज अनुपम थे, जो असुरों के नगरों का विनाश करने में समर्थ एवं अग्नि के समान देदीप्यामान शरीर से प्रकाशित होने वाले थे; उन्होंने अमृत की रक्षा के लिये अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया था। इस प्रकार वे तेजस्वी देवता उस श्रेष्ठ समर के लिये तैयार खड़े थे। वह रणांगण लाखों परिव आदि आयुधों से व्याप्त होकर सूर्य की किरणों द्वारा प्रकाशित एवं टूटकर गिरे हुए दूसरे आकाश के समान सुशोभित हो रहा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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