एकोनत्रिंश (29) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 19-34 का हिन्दी अनुवाद
रोष और लोभरूपी दोष के सम्बन्ध से उन दोनों को तिर्यक योनि में जाना पड़ा है। वे दोनों विशालकाय जन्तु पूर्व जन्म के वैर का अनुसरण करके अपनी विशालता और बल के घमण्ड में चूर हो एक दूसरे से द्वेष रखते हुए इस सरोवर में रहते हैं। इन दोनों में एक जो सुन्दर महान गजराज है, वह जब सरोवर के तट पर आता है, तब उसके चिग्घाड़ने की आवाज सुनकर जल के भीतर शयन करने वाला विशालकाय कछुआ भी पानी से ऊपर आता है। उस समय वह सारे सरोवर को मथ डालता है। उसे देखते ही यह पराक्रमी हाथी अपनी सूँड़ लपेटे हुए जल में टूट पड़ता है तथा दाँत, सूँड़, पूँछ और पैरों के वेग से असंख्य मछलियों से भरे हुए समूचे सरोवर में हलचल मचा देता है। उस समय पराक्रमी कच्छप भी सिर उठाकर युद्ध के लिये निकट आ जाता है। हाथी का शरीर छः योजन ऊँचा और बारह योजना लंबा है। कछुआ तीन योजन ऊँचा और दस योजना गोल है। वे दोनों एक दूसरे को मारने की इच्छा से युद्ध के लिये मतवाले बने रहते हैं। तुम शीघ्र जाकर उन दोनों को भोजन के उपयोग में लाओ और अपने इस अभीष्ट कार्य का साधन करो। कछुआ महान मेघ-खण्ड के समान है और हाथी भी महान पर्वत के समान भयंकर है। उन्हीं दोनों को खाकर अमृत ले आओ।' उग्रश्रवा जी कहते हैं- शौनक जी! कश्यप जी गरुड़ से ऐसा कहकर उस समय उनके लिये मंगल मनाते हुए बोले- ‘गरुड़! युद्ध में देवताओं के साथ लड़ते हुए तुम्हारा मंगल हो। पक्षिप्रवर! भरा हुआ कलश, ब्राह्मण, गौएँ तथा और जो कुछ भी मांगलिक वस्तुएँ हैं, वे तुम्हारे लिये कल्याणकारी होगी।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कनिष्ठान पुत्रवत पश्येज्ज्येष्ठो भ्राता पितुः समः’ अर्थात ‘बड़ा भाई पिता के समान होता है। वह अपने छोटे भाईयों को पुत्र के समान देखे।’ यह शास्त्र की आज्ञा है। जिसमें फूट हो जाती है, वे पीछे इस आज्ञा का पालन नहीं कर पाते।
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