महाभारत आदि पर्व अध्याय 226 श्लोक 18-36

षडविंशत्यधिकद्विशततम (226) अध्‍याय: आदि पर्व (खाण्डवदाह पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: षडविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 18-36 का हिन्दी अनुवाद


सुखदायिनी शीतल हवा चलने लगी। सूर्यमण्डल स्वाभाविक स्थिती में दिखायी देने लगा। अग्निदेव प्रतीकार शून्य होने के कारण बहुत प्रसन्न हुए और अनेक रूपों में प्रकट हो प्राणियों के शरीर से निकली हुई वसा के समूह से अभिषिक्त होकर बड़ी-बड़ी लपटों के साथ प्रज्वलित हो उठे। उस समय अपनी आवाज से वे सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रहे थे। महाराज! उस खाण्डववन को श्रीकृष्ण और अर्जुन से सुरक्षित देख अहंकार से युक्त सुन्दर पंख आदि अंगों वाले पक्षी आकाश में उड़ने लगे। एक गरुड़जातीय पक्षी[1] वज्र के समान पाँख, चोंच और पंजों से प्रहार करने की इच्छा रखकर आकाश से श्रीकृष्ण और अर्जुन की ओर झपटा। इसी समय प्रज्वलित मुख वाले नागों के समुदाय भी पाण्डव अर्जुन के समीप भयानक जहर उगलते हुए उनकी ओर टूट पड़े। यह देख अर्जुन ने रोषग्निप्रेरित बाणों द्वारा उन सबके टुकडे़-टुकडे़ कर डाले और वे सभी अपने शरीर को भस्म करने के लिये उस जलती हुई आग में समा गये।

तत्पश्चात् असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग युद्ध के लिये उत्सुक हो अनुपम गर्जना करते हुए वहाँ दौडे़ आये। किन्हीं के हाथ में लोहे की गोली छोड़ने वाले यन्त्र (तोप, बंदूक आदि) थे और कुछ लोगों ने हाथों में चक्र, पत्थर एवं भुशुण्डी उठा रखी थी। क्रोणाग्नि से बढ़े हुए तेज वाले वे सब के सब श्रीकृष्ण और अर्जुन को मार डालना चाहते थे। वे लोग बड़ी बड़ी डींग हाँकते हुए अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे। उस समय अर्जुन ने अपने तीखे बाणों से उन सबके सिर उड़ा दिये। शत्रुविनाशन महातेजस्वी श्रीकृष्ण ने भी चक्र द्वारा दैत्यों और दानवों के समुदाय का महान् संहार कर दिया। फिर दूसरे-दूसरे अमित तेजस्वी दैत्य दानव बाणों से घायल और चक्र वेग से कम्पित हो तट पर आकर रुक जाने वाली समुद्र की लहरों के समान एक सीमा तक ही ठहर गये- आगे न बढ़ सके।

तब देवताओं के महाराज इन्द्र श्वेत ऐरावत पर आरूढ़ हो अत्यन्त क्रोधपूर्वक उन दोनों की ओर दौडे़। असुरसूदन इन्द्र ने बड़े वेग से अशनि रूप अपना वज्रास्त्र उठाकर चला दिया और देवताओं से कहा- ‘लो ये दोनों मारे गये’। देवराज इन्द्र को वह महान् वज्र उठाते देख देवताओं ने भी अपने-अपने सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र ले लिये। राजन्! यमराज ने कालदण्ड, कुबेर ने गदा तथा वरुण ने प्लश और विचित्र वज्र हाथ में ले लिये। देवताओं के सेनापति स्कन्द शक्ति हाथ में लेकर मेरु पर्वत की भाँति अवचल भाव से खडे़ हो गये। दोनों अश्विनीकुमारों ने भी चमकीली औषधियाँ उठा ली। घाता ने धनुष लिया और जय ने मूसल, क्रोध में भरे हुए महाबली त्वष्टा ने पर्वत उठा लिया। अंश ने शक्ति हाथ में ले ली और मृत्युदेव ने फरसा। अर्यमा भी भयानक परिघ लेकर युद्ध के लिये विचरने लगे। मित्र देवता जिसके किनारों पर छुरे लगे हुए थे, वह चक्र लेकर खडे़ हो गये। महाराज! पूषा, भग और क्रोध में भरे हुए सविता धनुष और तलवार लेकर श्रीकृष्ण और अर्जुन पर टूट पड़े।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह विष्णुवाहन गरुड़ से भिन्न था।

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