विंशत्यधिकद्विशततम (220) अध्याय: आदि पर्व (हरणाहरण पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: विंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 16-35 का हिन्दी अनुवाद
उस समय द्रौपदी तुरंत उठकर खड़ी हो गयी और श्रीकृष्ण की बहिन सुभद्रा को हृदय से लगाकर बड़ी प्रसन्नता से बोली- ‘बहिन! तुम्हारे पति शत्रुरहित हों।’ सुभद्रा ने भी आनन्दमय होकर कहा- ‘बहिन! ऐसा ही हो।’ जनमेजय! तत्पश्चात् महारथी पाण्डव मन ही मन हर्ष विभोर हो उठे और कुन्ती देवी भी बहुत प्रसन्न हुई। कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ने जब यह सुना कि पाण्डव श्रेष्ठ अर्जुन अपने उत्तम नगर इन्द्रप्रस्थ पहुँच गये हैं, तब वे शुद्धात्मा श्रीकृष्ण एवं बलराम तथा वृष्णि और अन्धकवंश के प्रधान-प्रधान वीर महारथियों के साथ वहाँ आये। शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीकृष्ण भाइयों, पुत्रों और बहुतेरे योद्धाओं के साथ घिरे हुए तथा विशाल सेना से सुरक्षित होकर इन्द्रप्रस्थ में पधारे। उस समय वहाँ वृष्णि वीरों के सेनापति शत्रुदमन महायशस्वी और परमबुद्धिमान् दानपति अक्रूर जी भी आये थे। इनके सिवा महातेजस्वी अनाधृष्टि तथा साक्षात् बृहस्पति के शिष्य परम बुद्धिमान् महामनस्वी एवं परमयशस्वी उद्धव भी आये थे। सत्यक, सात्यकि, सात्वतवंशी कृतवर्मा, प्रद्युम्न, साम्ब, निशठ, शंकु, पराक्रमी चारूदेष्ण, झिल्ली, विपृथु, महाबाहु सारण तथा विद्वानों में श्रेष्ठगद- ये तथा और दूसरे भी बहुत से वृष्णि, भोज और अन्धकवंश के लोग दहेज की बहुत सी सामग्री लेकर खाण्डवप्रस्थ में आये थे। महाराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण का आगमन सुनकर उन्हें आदरपूर्वक लिया लाने के लिये नकुल और सहदेव को भेजा। उन दोनों के द्वारा स्वगातपूर्वक लाये हुए वृष्णिवंशियों के उस परम समृद्धशाली समुदाय ने खाण्डवप्रस्थ में प्रवेश किया। उस समय ध्वजा-पताकाओं से सजाया हुआ वह नगर सुशोभित हो रहा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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