महाभारत आदि पर्व अध्याय 220 श्लोक 16-35

विंशत्यधिकद्विशततम (220) अध्‍याय: आदि पर्व (हरणाहरण पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: विंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 16-35 का हिन्दी अनुवाद


इसके बाद राजा युधिष्ठिर और भीम के चरण छुये। तदनन्तर नकुल और सहदेव ने आकर अर्जुन को प्रणाम किया। अर्जुन ने भी हर्ष में भरकर उन दोनों को हृदय से लगा लिया और उनसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता का अनुभव किया। फिर वहाँ राजा से मिलकर नियमपूर्वक एकाग्रचित्त हो उन्होंने ब्राह्मणों का पूजन किया। तत्पश्चात् वे द्रौपदी के समीप गये। द्रौपदी ने प्रणय कोपवश कुरुनन्दन अजुर्न से कहा- ‘कुन्तीकुमार! यहाँ क्यों आये हो, वहीं जाओ, जहाँ वह सात्वतवंश की कन्या सुभद्रा है। सच है, बोझ को कितना ही कसकर बाँधा गया हो, जब उसे दूसरी बार बाँधते हैं, तब पहला बन्धन ढीला पड़ जाता है (यही हालत मेरे प्रति तुम्हारे प्रेम बन्धन की है)। इस तरह नाना प्रकार की बातें कहकर कृष्णा विलाप करने लगी। तब धनंजय ने उसे पूर्ण सान्त्वना दी और अपने अपराध के लिये उससे बार-बार क्षमा माँगी। इसके बाद अर्जुन ने लाल रेशमी साड़ी पहनकर आयी हुई अनिन्द्य सुन्दरी सुभद्रा का ग्वालिन का सा वेश बनाकर उसे बड़ी उतावली के साथ महल में भेजा। वीरपत्नी, वरांगना एवं यशस्विनी सुभद्रा उस वेश में और अधिक शोभा पाने लगी। उसकी आँखें विशाल और कुछ-कुछ लाल थी। उस यशस्विनी ने सुन्दर राजभवन के भीतर जाकर राजमाता कुन्ती के चरणों में प्रणाम किया। कुन्ती उस सर्वांगसुन्दरी पुत्रवधू को हृदय से लगाकर उसका मस्तक सूँघने लगी और उसने बड़ी प्रसन्नता के साथ उस अनुपम वधू को अनेक आशीर्वाद दिये। तदनन्तर पूर्ण चन्द्रमा के सदृश मनोहर मुख वाली सुभद्रा ने तुरंत जाकर महारानी द्रौपदी के चरण छूए और कहा ‘देवी! मैं आपकी दासी हूँ।’

उस समय द्रौपदी तुरंत उठकर खड़ी हो गयी और श्रीकृष्ण की बहिन सुभद्रा को हृदय से लगाकर बड़ी प्रसन्नता से बोली- ‘बहिन! तुम्हारे पति शत्रुरहित हों।’ सुभद्रा ने भी आनन्दमय होकर कहा- ‘बहिन! ऐसा ही हो।’ जनमेजय! तत्पश्चात् महारथी पाण्डव मन ही मन हर्ष विभोर हो उठे और कुन्ती देवी भी बहुत प्रसन्न हुई। कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ने जब यह सुना कि पाण्डव श्रेष्ठ अर्जुन अपने उत्तम नगर इन्द्रप्रस्थ पहुँच गये हैं, तब वे शुद्धात्मा श्रीकृष्ण एवं बलराम तथा वृष्णि और अन्धकवंश के प्रधान-प्रधान वीर महारथियों के साथ वहाँ आये। शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीकृष्ण भाइयों, पुत्रों और बहुतेरे योद्धाओं के साथ घिरे हुए तथा विशाल सेना से सुरक्षित होकर इन्द्रप्रस्थ में पधारे। उस समय वहाँ वृष्णि वीरों के सेनापति शत्रुदमन महायशस्वी और परमबुद्धिमान् दानपति अक्रूर जी भी आये थे। इनके सिवा महातेजस्वी अनाधृष्टि तथा साक्षात् बृहस्पति के शिष्य परम बुद्धिमान् महामनस्वी एवं परमयशस्वी उद्धव भी आये थे। सत्यक, सात्यकि, सात्वतवंशी कृतवर्मा, प्रद्युम्न, साम्ब, निशठ, शंकु, पराक्रमी चारूदेष्ण, झिल्ली, विपृथु, महाबाहु सारण तथा विद्वानों में श्रेष्ठगद- ये तथा और दूसरे भी बहुत से वृष्णि, भोज और अन्धकवंश के लोग दहेज की बहुत सी सामग्री लेकर खाण्डवप्रस्थ में आये थे। महाराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण का आगमन सुनकर उन्हें आदरपूर्वक लिया लाने के लिये नकुल और सहदेव को भेजा। उन दोनों के द्वारा स्वगातपूर्वक लाये हुए वृष्णिवंशियों के उस परम समृद्धशाली समुदाय ने खाण्डवप्रस्थ में प्रवेश किया। उस समय ध्वजा-पताकाओं से सजाया हुआ वह नगर सुशोभित हो रहा था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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