षडधिकद्विशततम (206) अध्याय: आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व )
महाभारत: आदि पर्व: षडधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 41-50 का हिन्दी अनुवाद
असंख्य नर-नारी उस नगर की शोभा बढ़ाते थे। वहाँ मतवाले हाथी, ऊंट, गायें, बैल, गदहे और बकरे आदि पशु भी सदा मौजूद रहते थे। विश्वकर्मा द्वारा बनायी हुई उस पुरी में सदा साधु-महात्माओं का समागम होता था। वह इन्द्रप्रस्थ नगर स्वर्ग के समान शोभा पाता था। राजन्, कौरवराज महातेजस्वी कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने वेदों के पारंगत विद्वान् ब्राह्मणों द्वारा मंगल कृत्य कराकर द्वैपायन व्यास को आगे करके धौम्य मुनि की सम्मति के अनुसार भाइयों तथा भगवान् श्रीकृष्ण के साथ बत्तीस दरवाजों से युक्त तोरण द्वार के सामने आकर वर्धमान नामक नगर द्वार में प्रवेश किया। उस समय शंख और नगारों की आवाज बड़े जोर-जोर से सुनायी देती थी। सहस्रों ब्राह्मणों के मुख से निकले हुए जय घोष का श्रवण होता था। मुनि तथा सूत, मागध और बन्दीजन राजा की स्तुती कर रहे थे। राजा युधिष्ठिर हाथी पर बैठे हुए थे। उन्होंने राजमार्ग को पार करके एक उत्तम भवन में प्रवेश किया, जहाँ मांगलिक कृत्य सम्पन्न किया गया था। उस भवन में प्रवेश करके भाँति-भाँति के सत्कारों से सम्मानित हो राजा युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण के साथ क्रमश: सभी शेष ब्राह्मणों का पूजन किया। तदनन्तर अगणित नर-नारियों से सुशोभित वह राष्ट्र और नगर गोधन से सम्पन्न हो गया और दिनों दिन खेती की वृद्धि होने लगी। महाराज! पुण्यात्मा मनुष्यों ने भरे हुए उस महान् राष्ट्र में प्रवेश करने के बाद पाण्डवों की प्रसन्नता निरन्तर बढ़ती गयी। भीष्म तथा राजा धृतराष्ट्र द्वारा धर्मराज युधिष्ठिर को आधा राज्य देकर वहाँ से विदा कर देने पर समस्त पाण्डव खाण्डवप्रस्थ के निवासी हो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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