महाभारत आदि पर्व अध्याय 1 श्लोक 208-220

प्रथम (1) अध्‍याय: आदि पर्व (अनुक्रमणिका पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 208-220 का हिन्दी अनुवाद


जब मैंने सुना कि कलहकारी द्यूत के मूल कारण, केवल छल-कपट के बल से बली पापी शकुनि को पाण्डुनन्दन सहदेव ने रणभूमि में यमराज के हवाले कर दिया, संजय! तभी मेरी विजय की आशा समाप्त हो गयी। जब दुर्योधन का रथ छिन्न-भिन्न हो गया, शक्ति क्षीण हो गयी और वह थक गया, तब वह सरोवर पर जाकर वहाँ का जल स्तम्भित करके उसमें अकेला ही सो गया। संजय! जब मैनें यह संवाद सुना, तब मेरी विजय की आशा भी चली गयी। जब मैंने सुना कि उसी सरोवर के तट पर श्रीकृष्ण के साथ पाण्डव जाकर खड़े हैं और मेरे पुत्र को असहाय, दुर्वचन कहकर नीचा दिखा रहे हैं, तभी संजय! मैंने विजय की आशा सर्वथा त्याग दी। संजय! जब मैंने सुना कि गदा युद्ध में मेरा पुत्र बड़ी निपुणता से पैंतरे बदल कर रणकौशल प्रकट कर रहा है और श्रीकृष्ण की सलाह से भीमसेन ने गदायुद्ध की मर्यादा के विपरीत जाँघ में गदा का प्रहार करके उसे मार डाला, तब तो संजय! मेरे मन में विजय की आशा रह ही नहीं गयी।

संजय! जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा आदि दुष्‍टों ने सोते हुए पांचाल नरपतियों और द्रौपदी के होनहार पुत्रों को मारकर अत्यन्त वीभत्स और वंश के यश को कलंकित करने वाला काम किया है, तब तो मुझे विजय की आशा रही ही नहीं। संजय! जब मैंने सुना कि भीमसेन के पीछा करने पर अश्वत्थामा ने क्रोधपूर्वक सींक के बाण पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया, जिससे कि पाण्डवों का गर्भस्थ वंशधर भी नष्ट हो जाये, तभी मेरे मन में विजय की आशा नहीं रही। जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा के द्वारा प्रयुक्त ब्रह्मशिर अस्त्र को अर्जुन ने ‘स्वस्ति स्वस्ति’ कहकर अपने अस्त्र से शान्त कर दिया और अश्वत्थामा को अपना मणिरत्न भी देना पड़ा। संजय! उसी समय मुझे जीत की आशा नहीं रही। जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा अपने महान अस्त्रों का प्रयोग करके उत्तरा का गर्भ गिराने की चेष्टा कर रहा है तथा द्वैपायन व्यास और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने परस्पर विचार करके उसे शापों से अभिशप्‍त कर दिया है, तभी मेरी विजय की आशा सदा के लिये समाप्त हो गयी।

इस समय गान्धारी की दशा शोचनीय हो गयी है; क्‍योंकि उसके पुत्र, पौत्र, पिता तथा भाई बन्धुओं में से कोई नहीं रहा। पाण्डवों ने दुष्कर कार्य कर डाला। उन्होंने फिर से अपना अकण्टक राज्य प्राप्त कर लिया। हाय-हाय! कितने कष्ट की बात है, मैंने सुना है कि इस भयंकर युद्ध में केवल दस व्यक्ति बचे हैं; मेरे पक्ष के तीन कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृतवर्मा तथा पाण्डव पक्ष के सात श्रीकृष्ण, सात्यकि और पाँचों पाण्डव। क्षत्रियों के इस भीषण संग्राम में अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ नष्ट हो गयी। सारथे! यह सब सुनकर मेरी आँखों के सामने घना अन्धकार छाया हुआ है। मेरे हृदय में मोह का आवेश-सा होता जा रहा है। मैं चेतनाशून्य हो रहा हूँ। मेरा मन विह्वल-सा हो रहा है। उग्रश्रवाजी कहते हैं- धृतराष्ट्र ने ऐसा कहकर बहुत विलाप किया और अत्यन्त दुःख के कारण वे मूर्च्छित हो गये। फिर होश में आकर कहने लगे। धृतराष्ट्र ने कहा- संजय! युद्ध का यह परिणाम निकलने पर अब मैं अविलम्ब अपने प्राण छोड़ना चाहता हूँ। अब जीवन धारण करने का कुछ भी फल मुझे दिखलायी नहीं देता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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