नवनवत्यधिकशततम (199) अध्याय: आदि पर्व (विदुरागमनराज्यलम्भपर्व)
महाभारत: आदि पर्व: नवनवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 8 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि कब स्वाभाविक बल का प्रयोग करना चाहिये तथा कब मित्र और सैन्य बल का। राजा युधिष्ठिर साम, दान, भेद और दण्ड-नीती के द्वारा ही यथासमय शत्रु को जीतने का प्रयत्न करते हैं, क्रोध के द्वारा नहीं-ऐसा मेरा विश्वास है। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर प्रचुर धन देकर शत्रुओं को, मित्रों-को तथा सेनाओं को खरीद लेते हैं और अपनी नींव को सुदृढ़ करके शत्रुओं का नाश करते हैं। मैं ऐसा मानता हूँ कि इन्द्र आदि देवता भी उन पाण्डवों का कुछ नहीं बिगाड़ सकते, जिनकी सहायता के लिये कृष्ण और बलराम दोनों सदा कमर कसे रहते हैं। यदि आप लोग मेरी बात को हितकर मानते हों, यदि मेरे मत के अनुकूल ही आप लोग का मत हो, तो हम लोग पाण्डवों से मेल करके जैसे आये हैं, वैसे ही लौट चलें। यह श्रेष्ठ नगर गोपुरों, ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं तथा सैकड़ों उपतल्पों से सुरक्षित है। इसके चारों और जल से भरी खाई है। घास-चारा, अनाज, ईंधन, रस, यन्त्र, आयुध तथा औषध आदि की यहाँ बहुतायत है। बहुत-से कपाट, द्रव्यागार और भूसा आदि से भी यह नगर भरपूर है। यहाँ बड़ें भयंकर और ऊंचे विशाल चक्र हैं। बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं की पंक्ति इस नगर को घेरे हुए है। इसकी चहारदीवारी और छज्जे सुद्दढ़ हैं। शतघ्नी (तोप) नामक अस्त्रों के समुदाय से यह नगरी घिरी हुई है। इसकी रक्षा के लिये तीन प्रकार का घेरा बना है- एक तो ईटों का, दूसरा काठ का और तीसरा मानव-सैनिकों का। चहारदिवारी बनाने वाले वीरों ने यहाँ नरगर्भ की पूजा की है। इस प्रकार यह नगर श्वेत नरगर्भ से शोभित है। अनेक ताड़ के बराबर ऊंचे शाल वृक्षों की पंक्तियों द्वारा यह श्रेष्ठ नगरी सब ओर से घिरी हुई है। महामना राजा द्रुपद की सभी प्रजा और प्रकृतियों (मन्त्री आदि) उनमें अनुराग रखती है। बाहर और भीतर के सभी कर्मचारियों का दान और मान-द्वारा सत्कार किया जाता है। भयानक पराक्रमी राजाओं द्वारा पाण्डवों को सब ओर से घिरा हुआ जानकर समस्त यदुवंशी वीर प्रचण्ड अस्त्र-शस्त्र लिये यहाँ उपस्थित हो जायंगे। अत: हम धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन की पाण्डवों के साथ संधि कराकर अपने राज्य में ही लौट चलें। यदि आप लोगों को मेरी बात पर विश्वास हो और मेरा यह मत सबको ठीक जंचता हो तो आप सब लोग इसे काम मे लायें। हमारा यही सर्वोत्तम कर्तव्य है और मैं इसी को राजाओं के लिये कल्याणकारी मानता हूँ। स्वयंवर समाप्त हो जाने पर जब यह ज्ञात हुआ कि द्रौपदी ने पाण्डवों का वरण किया है, तब वे सभी राजा जैसे आये थे, वैसे ही (अपने अपने) देश को लौट गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ राज्य के स्वामी, अमात्य, सुहृद्, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और सेना- इस सात अंगों को सात प्रकृतियां कहते है।
- ↑ संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय- ये छ: गुण हैं। इनमें शत्रु से मेल रखना संधि, उससे लड़ाई छेड़ना विग्रह, आक्रमण करना यान, अवसर की प्रतीक्षा में बैठे रहना आसन, दुरंगी नीति बर्तना द्वैधीभाव और अपने से बलवान् राजा की शरण लेना समाश्रय कहलाता।
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