महाभारत: आदि पर्व:एकाशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद
मेरा ॠतुकाल प्राप्त है, मैं पति के कष्ट में दु:ख पा रही हूँ। मैं संतान की इच्छा से पति के समीप आयी थी और उनसे मिलकर अभी अपनी इच्छा पूर्ण नहीं कर पानी हूँ। नृपश्रेष्ठ! ऐसी दशा में आप मुझ पर प्रसन्न होइये और मेरे इन पति देवता को छोड़ दीजिये। इस प्रकार ब्राह्मणी करुणविलाप करती हुई याचना कर रही थी, तो भी जैसे व्याघ्र मनचाहे मृग को मारकर खा जाता हैं, उसी प्रकार राजा ने अत्यन्त निर्दयी की भाँति ब्राह्मणी के पति को खा लिया। उस समय क्रोध से पीड़ित हुई ब्राह्मणी के नेत्रों से धरती पर आंसुओं की जो बूंदे गिरी, वे सब प्रज्वलित अग्नि बन गयीं। उस अग्नि ने उस स्थान को जलाकर भस्म कर दिया। तदनन्तर पति के वियोग से व्यथित एवं शोकसंतप्त ब्राह्मणी ने रोष में भरकर राजर्षि कल्माषपाद को शाप दिया- 'ओ नीच! मेरी पतिविषयक कामना अभी पूर्ण नहीं हो पायी थी, तभी तूने अत्यन्त क्रूर की भाँति मेरे देखते-देखते आज मेरे महायशस्वी प्रियतम पति को अपना ग्रास बना लिया है; अत: दुर्बुद्धे! तू भी मेरे शाप से पीड़ित हआ ॠतुकाल में पत्नी के साथ समागम करते ही तत्काल प्राण त्याग देगा। जिन महर्षि वसिष्ठ के पुत्रों का तुमने संहार किया है, उन्हीं से समागम करके तेरी पत्नी पुत्र पैदा करेगी। नृपाधम! वही पुत्र तेरा वंश चलाने वाला होगा।'
इस प्रकार राजा को शाप देकर वह सती साध्वी अंगिरसी राजा कल्माषपाद के समीप ही प्रज्वलित अग्नि में प्रवेश कर गयी। शत्रुसुदन अर्जुन! महाभाग वसिष्ठ जी अपनी बड़ी भारी तपस्या तथा ज्ञानयोग के प्रभाव से ये सब बातें जानते थे। दीर्घकाल के पश्चात वे राजर्षि जब शाप से मुक्त हुए, तब ॠतुकाल में अपनी पत्नी के पास गये। परंतु उनकी रानी मदयन्ती ने उन्हें (उक्त शाप की याद दिलाकर) रोक दिया। राजा कल्माषपाद काम से मोहित हो रहे थे। इसलिये उन्हें शाप का स्मरण नहीं रहा। महारानी मदयन्ती की बात सुनकर वे नृपश्रेष्ठ बड़े सम्भ्रम (घबराहट) में पड़ गये। उस शाप की बार-बार याद करके उन्हें बड़ा संताप हुआ। नरश्रेष्ठ! इसी कारण शापदोष से मुक्त राजा कल्माषपाद ने महर्षि वसिष्ठ का अपनी पत्नी के साथ निवास कराया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तगर्त चैत्ररथपर्व में वसिष्ठोपाख्यान विषयक एक सौ इक्यासीवां अध्याय पूरा हुआ।
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