षट्षष्टयधिकशततम (166) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: षट्षष्टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 34-47 का हिन्दी अनुवाद
ब्राह्मण कहता हैं- यों कहकर याज ने उस संस्कार युक्त हविष्य की आहुति ज्यों ही अग्नि में डाली, त्यों ही उस अग्नि से देवता के समान तेजस्वी एक कुमार प्रकट हुआ। उसके अंगों की कान्ति अग्नि की ज्वाला के समान उद्भासित हो रही थी। उसका रुप भय उत्पन्न करने वाला था। उसके माथे पर किरीट सुशोभित था। उसने अंगों में उत्तम कवच धारण कर रखा था। हाथों में खड्ग, बाण और धनुष धारण किये वह बार-बार गर्जना कर रहा था। वह कुमार उसी समय एक श्रेष्ठ रथ पर जा चढ़ा, मानो उसके द्वारा युद्ध के लिये यात्रा कर रहा हो। यह देखकर पांचालों को बड़ा हर्ष हुआ और वे जोर-जोर से बोल उठे, ‘बहुत-अच्छा, बहुत अच्छा’। उस समय हर्षोल्लास से भरे हुए इन पांचालों का भार यह पृथ्वी नहीं सह सकी। आकाश में कोई अदृश्य महाभूत इस प्रकार कहने लगा- ‘यह राजकुमार पांचालों के भय को दूर करके उनके यश की वृद्धि करने वाला होगा। यह राजा द्रुपद का शोक-दूर करने वाला है। द्रोणाचार्य के वध के लिये ही इसका जन्म हुआ है’। तत्पश्चात् यज्ञ की वेदी में से एक कुमारी कन्या भी प्रकट हुई, जो पांचाली कहलायी। वह बड़ी सुन्दरी एवं सौभाग्यशालिनी थी। उसका एक-एक अंग देखने ही योग्य था। उसकी श्याम आंखें बड़ी-बड़ी थीं। उसके शरीर की कान्ति श्याम थी। नेत्र ऐसे जान पड़ते मानो खिले हुए कमल के दल हों। केश काले-काले और घुंघराले थे। नख उभरे हुए और लाल रंग के थे। भौंहें बड़ी सुन्दर थीं। दोनों उरोज स्थूल और मनोहर थे। वह ऐसी जान पड़ती मानो साक्षात् देवी दुर्गा ही मानव शरीर धारण करके प्रकट हुई हों। उसके अंगों से नील कमल की सी सुगन्ध प्रकट होकर एक कोस तक चारों ओर फैल रही थी। उसने परम सुन्दर रुप धारण कर रखा था। उस समय पृथ्वी पर उसके-जैसी सुन्दर स्त्री दूसरी नहीं थी। देवता, दानव और यक्ष भी उस देवोपम कन्या को पाने के लिये लालायति थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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