महाभारत आदि पर्व अध्याय 139 श्लोक 13-25

एकोनचत्‍वारिंशदधिकशततम (139) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

Prev.png

महाभारत: आदि पर्व: एकोनचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद


ऐसे समय में अपने धनुष को तिनके के समान बना दे अर्थात शत्रु की दृष्टि में सर्वथा दीन-हीन एवं असमर्थ बन जाय; परंतु व्‍याध की भाँति सोये- अर्थात जैसे व्‍याध झूठे ही नींद का बहाना करके सो जाता है और जब मृग विश्वस्‍त होकर आसपास चरने लगते हैं, तब‍ उठकर उन्‍हें बाणों से घायल कर देता है, उसी प्रकार शत्रु को मारने का अवसर देखते हुए ही अपने स्‍वरूप और मनोभाव को छिपाकर असमर्थ पुरुषों का-सा व्‍यवहार करे। इस प्रकार कपटपूर्ण बर्ताव से वश में आये हुए शत्रु को साम आदि उपायों से विश्वास उत्‍पन्न करके मार डाले। यह मेरी शरण में आया है, यह सोचकर उसके प्रति दया नहीं दिखानी चाहिये। शत्रु को मार देने से ही राजा निर्भय हो सकता है। यदि शत्रु मारा नहीं गया तो उससे सदा ही भय बना रहता है। जो सहज शत्रु है, उसे मुंह मांगी वस्‍तु देकर-दान के द्वारा विश्वास उत्‍पन्न करके मार डाले। इसी प्रकार जो पहले का अपकारी शत्रु हो और पीछे सेवक बन गया हो, उसे भी जीवित न छोड़े। शत्रुपक्ष के त्रिवर्ग,[1], पंचवर्ग[2] और सप्तवर्ग[3] का सर्वथा नाश कर डाले। पहले तो सदा शत्रु पक्ष के मूल का ही उच्‍छेद कर डाले। तत्‍पश्चात् उसके सहायकों और शत्रु पक्ष से सम्‍बन्‍ध रखने वाले सभी लोगों का संहार कर दे। यदि मूल आधार नष्ट हो जाय तो उसके आश्रय से जीवन धारण करने वाले सभी शत्रु स्‍वत: नष्ट हो जाते हैं। यदि वृक्ष की जड़ काट दी जाय तो उसकी शाखाऐं कैसे रह सकती हैं?

राजा सदा शत्रु की गति विधि को जानने के लिये एकाग्र रहे। अपने राज्‍य के सभी अंगों को गुप्त रखे। राजन्! सदा अपने शत्रुओं की कमज़ोरी पर दृष्टि रखे और उनसे सदा सतर्क (सावधान) रहे। अग्निहोत्र और यज्ञ करके, गेरुए वस्त्र, जटा और मृगचर्म धारण करके पहले लोगों में विश्वास उत्‍पन्न करे; फि‍र अवसर देखकर भेड़िये की भाँति शत्रुओं पर टूट पड़े और उन्‍हें नष्ट कर दे। कार्यसिद्धि के लिये शौच-सदाचार आदि का पालन एक प्रकार का अंकुश (लोगों को आकृष्ट करने का साधन) बताया गया है। फलों से लदी हुई वृक्ष की शाखा को अपनी ओर कुछ झुकाकर ही मनुष्‍य उसके पके-पके फल को तोड़े। लोक में विद्वान् पुरुषों का यह सारा आयोजन ही अभीष्ट फल की सिद्धि के लिये होता है। जब तक समय बदलकर अपने अनुकूल न हो जाय, तब तक शत्रु को कंधे पर बिठाकर ढोना पड़े, तो ढोये भी। परंतु जब अपने अनुकूल समय आ जाय, तब उसे उसी प्रकार नष्ट कर दे, जैसे घड़े को पत्‍थर पर पटककर फोड़ डालते हैं। शत्रु बहुत दीनतापूर्ण वचन बोले, तो भी उसे जीवित नहीं छोड़ना चाहिये। उस पर दया नहीं करनी चाहिये। अपकारी शत्रु को मार ही डालना चाहिये। साम अथवा दान तथा भेद एवं दण्‍ड सभी उपायों द्वारा शत्रु को मार डाले-उसे मिटा दे’। धृतराष्ट्र ने पूछा- कणिक! साम, दान, भेद अथवा दण्‍ड द्वारा शत्रु का नाश कैसे किया जा सकता है, यह मुझे यथार्थ रुप से बताइये। कणिक ने कहा- महाराज! इस विषय में नीतिशास्त्र के तत्त्व को जानने वाले एक वनवासी गीदड़ का प्राचीन वृत्तान्‍त सुनाता हूं, सुनिये।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तीन प्रकार की शक्तियाँ ही यहाँ त्रिवर्ग कही गयी हैं। उनके नाम ये हैं- प्रभुशक्ति (ऐश्वर्यशक्ति), उत्साहशक्ति और मंत्रशक्ति। दुर्ग आदि पर आक्रमण करके शत्रु की ऐश्वर्य-शक्ति का नाश करे। विश्वसनीय व्यक्तियों द्वारा अपने उत्कर्ष का वर्णन कराकर शत्रु को तेजोहीन बनाना, उसके उत्साह एवं साहस को घटा देना ही उत्साहशक्ति की नाश करना है। गुप्तचरों द्वारा उनकी गुप्त मंत्रणा को प्रकट कर देना ही मंत्रशक्ति का नाश करना है।
  2. अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोष, और सेना- ये पाँच प्रकृतियाँ ही पंचवर्ग हैं।
  3. साम, दान, भेद, दण्ड, उद्बंधन, विषप्रयोग और आग लगाना- शत्रु को वश में करने या दबाने के ये सात साधन ही सप्तवर्ग हैं।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः