एकत्रिंशदधिकशततम (131) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: एकत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद
द्रोण ने कहा- अर्जुन! मैं ऐसा करने का प्रयत्न करूंगा, जिससे इस संसार में दूसरा कोई धर्नुधर तुम्हारे समान न हो। मैं तुमसे यह सच्ची बात कहता हू। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! तदनन्तर द्रोणाचार्य अर्जुन को पुन: घोड़ों, हाथियों, रथों तथा भूमि पर रहकर युद्ध करने की शिक्षा देने लगे। उन्होंने कौरवों को गदायुद्ध, खड्ग चलाने तथा तोमर, प्रास और शक्तियों के प्रयोग की कला एवं एक ही साथ अनेक शस्त्रों के प्रयोग अथवा अकेले ही अनेक शत्रुओं से युद्ध करने की शिक्षा दी। द्रोणाचार्य का यह अस्त्र कौशल सुनकर सहस्रों राजा और राजकुमार धनुर्वेद की शिक्षा लेने के लिये वहाँ एकत्रित हो गये। महाराज! तदनन्तर निषादराज हिरण्यधनुका का पुत्र एकलव्य द्रोण के पास आया। परंतु उसे निषादपुत्र समझकर धर्मज्ञ आचार्य ने धनुर्विद्या विषयक शिष्य नहीं बनाया। कौरवों की ओर दृष्टि रखकर ही उन्होंने ऐसा किया। शत्रुओं को संताप देने वाले एकलव्य ने द्रोणाचार्य के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और वन में लौटकर उनकी मिट्टी की मूर्ति बनायी तथा उसी में आचार्य की परमोच्च भावना रखकर उसने धनुर्विधा का अभ्यास प्रारम्भ किया। वह बड़े नियम के साथ रहता था। आचार्य में उत्तम श्रद्धा रखकर और भारी अभ्यास बल से उसने बाणों के छोड़ने, लौटाने और संधान करने में बड़ी अच्छी फुर्ती प्राप्त कर ली। शत्रुओं का दमन करने वाले जनमेजय! तदनन्तर एक दिन समस्त कौरव और पाण्डव आचार्य द्रोण की अनुमति से रथों पर बैठकर (हिंसक पशुओं का) शिकार खेलने के लिये निकले। इस कार्य के लिये आवश्यक सामग्री लेकर कोई मनुष्य स्वेच्छानुसार अकेला ही उन पाण्डवों के पीछे-पीछे चला। उसने साथ में एक कुत्ता भी ले रखा था। वे सब अपना-अपना काम पूरा करने की इच्छा से वन में इधर-उधर विचर रहे थे। उनका वह मूढ़ कुत्ता वन में घूमता-घामता निषाद पुत्र एकलव्य के पास जा पहुँचा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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