त्रिंशदधिकशततम (130) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 35-51 का हिन्दी अनुवाद
द्रोणाचार्य ने कहा- अपनी प्रतिज्ञा से कभी च्युत न होने वाले भीष्म जी! पहले की बात है, मैं अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा तथा धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त करने के लिये महर्षि अग्निवेश के समीप गया था। वहाँ मैं विनीत हृदय से ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए सिर पर जटा धारण किये बहुत वर्षों तक रहा। गुरु की सेवा में निरन्तर संलग्न रहकर मैंने दीर्घ काल तक उनके आश्रम में निवास किया। उन दिनों पाञ्चाल राजकुमार महाबली यज्ञसेन द्रुपद भी, जो बड़े शक्तिशाली थे, धनुर्वेद की शिक्षा पाने के लिये उन्हीं गुरुदेव अग्निवेश के समीप रहते थे। वे उस गुरुकुल में मेरे बड़े ही उपकारी और प्रिय मित्र थे। प्रभो! उनके साथ मिल-जुल कर मैं बहुत दिनों तक आश्रम में रहा। बचपन से ही हम दोनों का अध्ययन साथ-साथ चलता था। द्रुपद वहाँ मेरे घनिष्ठ मित्र थे वे सदां मुझसे प्रिय वचन बोलते और मेरा प्रिय कार्य करते थे। भीष्म जी! वे एक दिन मुझसे मेरी प्रसन्नता को बढ़ाने वाली यह बात बोले- ‘द्रोण! मैं अपने महात्मा पिता का अत्यन्त प्रिय पुत्र हूँ। तात! जब पाञ्चाल नरेश मुझे राज्य पर अभिषिक्त करेंगे, उस समय मेरा राज्य तुम्हारे उपभोग में आयेगा। सखे! मैं सत्य की सौगन्ध खाकर कहता हूं- मेरे भोग, वैभव और सुख सब तुम्हारे अधीन होंगे।’ यों कहकर वे अस्त्र विद्या में निपुण हो मुझसे सम्मानित होकर अपने देश को लौट गये। उनकी उस समय कही हुई इस बात को मैं अपने मन में सदा याद रखता था। कुछ दिनों के बाद पितरों की प्रेरणा से मैंने पुत्र प्राप्ति के लोभ से परम बुद्धिमति, महान् व्रत का पालन करने वाली, अग्निहोत्र, सत्र तथा सम-दम के पालन में मेरे साथ सदा संलग्न रहने वाली शरद्वान् की पुत्री यशस्विनी कृपी से, जिसके केश बहुत बड़े नहीं थे, विवाह किया। उस गौतमी कृपी ने मुझसे मेरे औरस पुत्र अश्वत्थामा को प्राप्त किया जो सूर्य के समान तेजस्वी तथा भयंकर पराक्रम एवं पुरुषार्थ करने वाला है। उस पुत्र से मुझे उतनी ही प्रसन्नता हुई, जितनी मुझसे मेरे पिता भरद्वाज को हुई थी। एक दिन की बात है, गोधन के धनी ऋषि कुमार गाय का दूध पी रहे थे। उन्हें देखकर मेरा छोटा बच्चा अश्वत्थामा भी बाल-स्वभाव के कारण दूध पीने के लिये मचल उठा और रोने लगा। इसमें मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया- मुझे दिशाओं के पहचानने में भी संशय होने लगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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