एकोनत्रिंशदधिकशततम (129) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: एकोनत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 41-57 का हिन्दी अनुवाद
राजन्! किसी समय उन्होंने सुना कि ‘महात्मा जमदग्निनन्दन परशुराम जी इस समय सर्वज्ञ एवं सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ हैं तथा शत्रुओं को संताप देने वाले वे विप्रवर ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान करना चाहते हैं। द्रोण ने यह सुनकर कि परशुराम के पास सम्पूर्ण धनुर्वेद तथा दिव्यास्त्रों का ज्ञान है, उन्हें प्राप्त करने की इच्छा की। इसी प्रकार उन्होंने उनसे नीति-शास्त्र की शिक्षा लेने का भी विचार किया। फिर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले तपस्वी शिष्यों से घिरे हुए महातपस्वी महाबाहु द्रोण परम उत्तम महेन्द्र पर्वत पर गये। महेन्द्र पर्वत पर पहुँचकर महान् तपस्वी द्रोण ने क्षमा एवं शम-दम आदि गुणों से युक्त शत्रुनाशक भृगुननदन परशुरामजी का दर्शन किया। तत्पश्चात् शिष्यों सहित द्रोण ने भृगुश्रेष्ठ परशुराम जी के समीप जाकर अपना नाम बताया और यह भी कहा कि ‘मेरा जन्म आंगिरस कुल में हुआ है’। इस प्रकार नाम और गोत्र बताकर उन्होंने पृथ्वी पर मस्तक टेक दिया और परशुरामजी के चरणों में प्रणाम किया। तदनन्तर सर्वस्व त्याग कर वन में जाने की इच्छा रखने वाले महात्मा जमदग्निकुमार से द्रोण ने इस प्रकार कहा- ‘द्विजश्रेष्ठ! मैं महर्षि भरद्वाज से उत्पन्न उनका अयोनिज पुत्र हूँ। आपको यह ज्ञात हो कि मैं धन की इच्छा से आया हूँ। मेरा नाम द्रोण है’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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