महाभारत आदि पर्व अध्याय 103 श्लोक 17-26

त्र्यधिकशततम (103) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: त्र्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 17-26 का हिन्दी अनुवाद


सूर्य प्रभा और अग्नि अपनी उष्‍णता को छोड़ दे, आकाश शब्‍द का और चन्‍द्रमा अपनी शीतलता का परित्‍याग कर दें। इन्‍द्र पराक्रम को छोड़ दें और धर्मराज धर्म की उपेक्षा कर दें; परंतु मैं किसी प्रकार सत्‍य को छोड़ने को विचार भी नहीं कर सकता। सारे संसार का नाश हो जाय, मुझे अमरत्‍व मिलता हो या त्रिलोकी का राज्‍य प्राप्‍त हो, तो भी मैं अपने किये हुए प्रण को नहीं तोड़ सकता।’ महान् तेजोरुप धन से सम्‍पन्न अपने पुत्र भीष्म के ऐसा कहने पर माता सत्यवती इस प्रकार बोली- ‘बेटा! तुम सत्‍यपराक्रमी हो। मैं जानती हूं, सत्‍य में तुम्‍हारी दृढ़ निष्ठा है। तुम चाहो तो अपने ही तेज से नयी त्रिलोकी की रचना कर सकते हो। मैं उस सत्‍य को भी नहीं भूल सकी हूं, जिसकी तुमने मेरे लिये घोषणा की थी। फि‍र भी मेरा आग्रह है कि तुम आपद्धर्म का विचार करके बाप-दादों के दिये हुए इस राज्‍यभार को बहन करो।

परंतप! जिस उपाय से तुम्‍हारे वंश की परम्‍परा नष्ट न हो, धर्म की भी अवहेलना न होने पावे और प्रेमी सुहृद् भी संतुष्ट हो जायं, वही करो।’ पुत्र की कामना से दीन वचन बोलने वाली और मुख से धर्मरहित बात कहने वाली सत्‍यवती से भीष्‍म ने फि‍र यह बात कही- ‘राजामाता! धर्म की ओर दृष्टि डालो, हम सबका नाश न करो। क्षत्रिय का सत्‍य से विचलित होना किसी भी धर्म में अच्‍छा नहीं माना गया है। राजमाता! महाराज शान्‍तनु की संतान परम्‍परा भी जिस उपाय से इस भूतल पर अक्षय बनी रहे, वह धर्मयुक्त उपाय मैं तुम्‍हें बतलाऊंगा। वह सनातन क्षत्रिय धर्म है। उसे आपद्धर्म के निर्णय में कुशल विद्धान पुरोहितों से सुनकर और लोकतन्‍त्र की ओर देखकर निश्चय करो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत सम्‍भव पर्व में भीष्म-सत्यवती-संवादविषयक एक सौ तीनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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