षट्पंचाशत्तम (56) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
महाभारत: आदि पर्व :षट्पंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 13-27का हिन्दी अनुवाद
उग्रश्रवा जी कहते है- शौनक! नागराज तक्षक अब कुछ ही क्षणों में आग की ज्वाला में गिरने वाला था। उस समय आस्तीक ने यह सोचकर कि ‘यही वर मांगने का अच्छा अवसर है’ राजा को वर देने के लिये प्रेरित किया। आस्तीक ने कहा- राजा जनमेजय! यदि तुम मुझे वर देना चाहते हो, तो सुनो, मैं मांगता हूँ कि तुम्हारा यह यज्ञ बंद हो जाय अब इसमें सर्प न गिरने पावें। ब्रह्मन! आस्तीक के ऐसा कहने पर वे परीक्षित-कुमार जनमेजय खिन्नचित्त होकर बोले- ‘विप्रवर! आप सोना, चांदी, गौ तथा अन्य अभीष्ट वस्तुओं को, जिन्हें आप ठीक समझते हों, मांग लें। प्रभो! वह मुंह मांगा वर मैं आपको दे सकता हूं, किंतु मेरा यज्ञ बंद नहीं होना चाहिये’। आस्तीक ने कहा- राजन! मैं तुमसे सोना, चांदी और गौएं नहीं माँगूंगा, मेरी यही इच्छा है कि तुम्हारा यह यज्ञ बंद हो जाय, जिससे मेरी माता के कुल का कल्याण हो। उग्रश्रवा जी कहते हैं- भृगुनन्दन शौनक! आस्तीक के ऐसा कहने पर उस समय वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा जनमेजय ने उनसे बार-बार अनुरोध किया, ‘विप्रशिरोमणे। आपका कल्याण हो, कोई दूसरा वर मांगिये।’ किंतु आस्तीक ने दूसरा कोई वर नहीं मांगा। तब सम्पूर्ण वेदवेत्ता सभासदों ने एक साथ संगठित होकर राजा से कहा- ‘ब्राह्मण को (स्वीकार किया हुआ) वर मिलना ही चाहिये’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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