षण्णवतितम (96) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: षण्णवतितम अध्याय: भाग-7 का हिन्दी अनुवाद
संन्यासी पुण्यतीर्थों का निरंतर सेवन करे, नदियों के तट पर कुटी बनाकर रहे अथवा सूने घर में डेरा डाले। वन में वृक्षों के नीचे अथवा पर्वतों की गुफाओं में निवास करे। सदा वन में विचरण करे। वेदरूपी वन का आश्रय ले, किसी भी स्थान में एक रात या दो रात से अधिक न रहे। कहीं भी आसक्त न हो। संन्यासी जंगली फल-मूल अथवा सूखे पत्ते का आहार करे। वह भोग के लिये नहीं, शरीरयात्रा के निर्वाह के लिये भोजन करे। वह धर्मतः अन्न का भोजन करे। कामनापूर्वक कुछ भी न खाये। रास्ता चलते समय वह दो हाथ आगे तक की भूमि पर ही दृष्टि रखे और एक दिन में एक कोस से अधिक न चले। मान हो या अपमान, वह दोनों अवस्थाओं में समान भाव से रहे। मिट्टी के ढेले, पत्थर और सुवर्ण को एक समान समझे। समस्त प्राणियों को निर्भय करे और सबको अभय की दक्षिणा दे। शीत-उष्ण आदि द्वंदों से निर्विकार रहे, किसी को नमस्कार न करे। सांसारिक सुख और परिग्रह से दूर रहे। ममता और अहंकार को त्याग दे। समस्त प्राणियों में से किसी के भी आश्रित न रहे। वस्तुओं के स्वरूप के विषय में विचार करके उनके तत्त्वज्ञ को जाने। सदा सत्य में अनुरक्त रहे। ऊपर, नीचे या अगल-बगल में कहीं किसी वस्तु की कामना न करे। इस प्रकार विधिपूर्वक यतिधर्म का पालन करने वाला संन्यासी काल के परिणामवश अपने शरीर को पके हुए फल की भाँति त्यागकर सनातन ब्रह्म में प्रविष्ट हो जाता है। वह ब्रह्मनिरामय, अनादि, अनन्त, सौम्यगुण से युक्त, चेतना से ऊपर उठा हुआ, अनिर्वचनीय, बीजहीन, इन्द्रियातीत, अजन्मा, अजेय, विनाशी, अभेद्य, सूक्ष्म, निगुर्ण, सर्वशक्तिमान, निर्विकार, भूत, वर्तमान और भविष्काल का स्वामी तथा परमेश्वर है। वही अव्यक्त, अर्न्तयामी पुरुष और क्षेत्र भी है। जो उसे जान लेता है, वह मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार वह भिक्षु घोंसला छोड़कर उड़ जाने वाले पक्षी की भाँति यहीं इस शरीर को त्याग समस्त पापों को ज्ञानाग्नि से दग्ध कर देने के कारण निर्वाण-मोक्ष प्राप्त कर लेता है। मनुष्य जो शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसका वैसा ही फल भोगता है। बिना किये हुए कर्म का फल किसी को नहीं भोगना पड़ता है तथा किये हुए कर्म का फल भोग के बिना नष्ट नहीं होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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