महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 96 भाग 2

षण्णवतितम (96) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: षण्णवतितम अध्याय: भाग-2 का हिन्दी अनुवाद


महाबाहो! भरतनन्दन! जिसके पैर जल रहे हों, ऐसे कठोर व्रतधारी स्नातक द्विज को जो जूते दान करता है, वह शरीर-त्याग के पश्चात देववन्दित लोकों में जाता है और बड़ी प्रसन्नता के साथ गोलोक में निवास करता है।

भरतश्रेष्ठ! भरतसत्तम! यह मैंने तुमसे छातों और जूतों के दान का सम्पूर्ण फल बताया है।

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! इस जगत में शूद्रों के लिये सदा द्विजातियों की सेवा को ही परम धर्म बताया गया है। वह सेवा किन कारणों से कितने प्रकार की कही गयी है? भरतभूषण! भरतरत्न! शूद्रों को द्विजों की सेवा से किन लोकों की प्राप्ति बतायी गयी है? मुझे धर्म का लक्षण बताइये।

भीष्म जी ने कहा- राजन! इस विषय में ब्रह्मवादी पराशर ने शूद्रों पर कृपा करने के लिये जो कुछ कहा है, उसी इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। बड़े-बूढ़े पराशर मुनि ने सब वर्णों पर कृपा करने के लिये शौचाचार से सम्पन्न निर्मल एवं अनामय धर्म का प्रतिपादन किया। तत्त्वज्ञ पराशर मुनि ने अपने सारे धर्मोपदेश को ठीक-ठीक आनुपूर्वी सहित अपने शिष्‍यों को पढ़ाया। वह एक सार्थक धर्मशास्त्र था।

पराशर ने कहा- मनुष्य को चाहिये कि वह जीतेन्द्रिय, मनोनिग्रही, पवित्र, चंचलतारहित, सबल, धैर्यशील, उत्तरोत्तर वाद-विवाद न करने वाला, लोभहीन, दयालु, सरल, ब्रह्मवादी, सदाचारपरायण और सर्वभूत हितैषी होकर सदा अपने ही देह में रहने वाले काम, क्रोध, लोभ, मान, मोह और मद- इन छह शत्रुओं को अवश्‍य जीते। बुद्धिमान मनुष्य विधिपूर्वक धैर्य का आश्रय ले गुरुजनों की सेवा में तत्पर, अहंकारशून्य तथा तीनों वर्णों की सहानुभूति का पात्र होकर अपनी शक्ति और बल के अनुसार कर्म, मन, वाणी, और नेत्र- इन चारों के द्वारा चार प्रकार के संयम का अबलंवन ले शांतचित्त, दमनशील एवं जीतेन्द्रिय हो जाये।

दक्ष-ज्ञानीजनों का नित्य अन्वेषण करने वाला यज्ञशेष अमृतरूप अन्न का भोजन करे। जैसे भौरा फूलों से मधु का संचय करता है, उसी प्रकार तीनों वर्णों से मुधकरि भिक्षा का संचय करते हुए ब्राह्मण भिक्षु को धर्म का आचरण करना चाहिये। ब्राह्मणों का धन है वेद-शास्‍त्रों का स्वाध्याय, क्षत्रियों का धन है बल, वैश्‍यों का धन है व्यापार और खेती तथा शूद्रों का धन है तीनों वर्णों की सेवा। इस धर्मरूपी धन का उच्छेद करने से मनुष्य नरक में पड़ता है। नरक से निकलने पर ये धर्मरहित निर्दय मनुष्य म्लेच्छ होते हैं और मलेच्छ होने के बाद फिर पापकर्म करने से उन्हें सदा के लिये नरक और पशु-पक्षी आदि तिर्यक योनि की प्राप्ति होती है।

जो लोग प्राचीन वर्णाश्रमोचित सन्मार्ग का आश्रय ले सारे विपरीत मार्गों का परित्याग करके स्वधर्म के मार्ग पर चलते हैं, समस्त प्राणियों के प्रति दया रखते हैं और क्रोध को जीतकर शास्त्रोक्त विधि से श्रद्धापूर्वक देवताओं तथा ब्राह्मणों की पूजा करते हैं, उनके लिये यथावत रूप से क्रमश: सम्पूर्ण धर्मों के ग्रहण की विधि तथा सेवाभाव की प्राप्ति आदि का वर्णन करता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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