महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 73 श्लोक 31-41

त्रिसप्ततितम (73) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रिसप्ततितम अध्याय: श्लोक 31-41 का हिन्दी अनुवाद


जो गोसेवा का व्रत लेने वाला पुरुष गौओं पर दया करता और प्रतिदिन एक समय भोजन करके एक समय का भोजन गौओं का दे देता है, इस प्रकार दस वर्षों तक गोसेवा में तत्पर रहने वाले पुरुष को अनन्त सुख प्राप्त होते हैं। शतक्रतो! जो एक समय भोजन करके दूसरे समय के बचाये हुए भोजन से गाय खरीद कर उसका दान करता है, वह उस गौ के जितने रोये होते हैं, उतने गौओं के दान का अक्षय फल पाता है। यह ब्राह्मण के लिये फल बताया गया। अब क्षत्रिय को मिलने वाले फल का वर्णन सुनो। यदि क्षत्रिय इसी प्रकार पांच वर्षों तक गौ की आराधना करे तो उसे वही फल प्राप्त होता है। उससे आधे समय में वैश्य को और उससे भी आधे समय में शूद्र को उसी फल की प्राप्ति बतायी गयी है।

जो अपने आपको बेचकर भी गाय को खरीदकर उसका दान करता है, वह ब्रह्माण्ड में जब तक गो जाति की सत्ता देखता है, तब तक उस दान का अक्षय फल भोगता रहता है। महाभाग इन्द्र। गौओं के रोम-रोम में अक्षय लोकों की स्थिति मानी गयी है। जो संग्राम में गौओं को जीतकर उनका दान कर देता है, उनके लिये वे गौएँ स्वयं अपने को बेचकर लेकर दी हुई गौओं के समान अक्षय फल देने वाली होती हैं- इस बात को तुम जान लो। जो संयम और नियम का पालन करने वाला पुरुष गौओं के अभाव में तिलधेनु का दान करता है, वह उस धेनु की सहायता पाकर दुर्गम संकट से पार हो जाता है तथा दूध की धारा बहाने वाली नदी के तट पर रहकर आनन्द भोगता है। केवल गौओं का दान मात्र कर देना प्रशंसा की बात नहीं है, उसके लिये उत्तम पात्र, उत्तम समय, विशिष्ट गौ, विधि और काल का ज्ञान आवश्‍यक है।

विप्रवर! गौओं में जो परस्पर तारतम्य है, उसको तथा अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी पात्र को जानना बहुत ही कठिन है। जो वेदों के स्वाध्याय से सम्पन्न तथा शुद्ध कुल में उत्पन्न, शान्त भाव, यज्ञ परायण, पापभीरू और बहुज्ञ है, जो गौओं के प्रति क्षमाभाव रखता है, जिसका स्वभाव अत्यन्त तीखा नहीं है, जो गौओं की रक्षा करने में समर्थ और जीविका से रहित है, ऐसे ब्राह्मण को गोदान का उत्तम पात्र बताया गया है। जिसकी जीविका क्षीण हो गयी हो तथा जो अत्यन्त कष्ट पा रहा हो, ऐसे ब्राह्मण को सामान्य देश-काल में भी दूध देने वाली गाय का दान करना चाहिये। इसके सिवा खेती के लिये, होम-सामग्री के लिये, प्रसूता स्त्री के पोषण के लिये, गुरु दक्षिणा के लिये अथवा शिशुपालन के लिये सामान्य देश-काल में भी दुधारू गाय का दान करना उचित है।

गर्भिणी, खरीदकर लायी हुई, ज्ञान या विद्या के बल से प्राप्त की हुई, दूसरे प्राणियों के बदले में लायी हुई अथवा युद्ध में पराक्रम प्रकट करके प्राप्त की हुई, दहेज में मिली हुई, पालन में कष्ट समझकर स्वामी के द्वारा परित्यक्त हुई तथा पालन-पोषण के लिये अपने पास आई हुई विशिष्ट गौएँ इन उपर्युक्त कारणों से ही दान के लिये प्रशंसनीय मानी गयी हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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