महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 62 श्लोक 70-85

द्विषष्टितम (62) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: द्विषष्टितम अध्याय: श्लोक 70-85 का हिन्दी अनुवाद


इन्द्र! मनुष्य पृथ्वी का दान करने के साथ ही समुद्र, नदी, पर्वत और सम्पूर्ण वन- इन सब का दान कर देता है। (अर्थात इन सब के दान का फल प्राप्त कर लेता है)। इतना ही नहीं, पृथ्वी का दान करने वाला पुरुष तालाब, कुआं, झरना, सरोबर, स्नेह (घृत आदि) और सब प्रकार के रसों के दान का भी फल प्राप्त कर लेता है। पृथ्वी का दान करते समय मनुष्य शक्तिशाली औषधियों, फल और फूलों से भरे हुए वृक्षों, वन, प्रस्तर और पर्वतों का भी दान कर देता है। बहुत-सी दक्षिणाओं से युक्त अग्निष्टोम आदि यज्ञों द्वारा यजन करके भी मनुष्य उस फल को नहीं पाता, जो उसे भूमिदान से मिल जाता है। भूमि का दान करने वाला मनुष्य अपनी दस पीढ़ियों का उद्धार करता है तथा देकर छीन लेने वाला अपनी दस पीढ़ियों को नरक में ढकेलता है। जो पहले की दी हुई भूमि का अपहरण करता है, वह स्वयं भी नरक में जाता है। जो देने की प्रतिज्ञा करके नहीं देता है तथा जो देकर भी फिर ले लेता है, वह मृत्यु की आज्ञा से वरुण के पाष में बंधकर तरह-तरह के कष्ट भोगता है।

जो प्रतिदिन अग्निहोत्र करता है, सदा यज्ञ के अनुष्ठान में लगा रहता और अतिथियों को प्रिय मानता है तथा जिसकी जीविकावृत्ति नष्ट हो गयी है, ऐसे श्रेष्ठ द्विज की जो सेवा करते हैं वे यमराज के पास नहीं जाते। पुरंदर! राजा को चाहिये कि वह ब्राह्मणों के प्रति उऋण रहे अर्थात उनकी सेवा करके उन्हें संतुष्ट रखे तथा अन्य वर्णों में भी जो लोग दीन-दुर्बल हैं; उनका संकट से उद्धार करें। सुरश्रेष्ठ! देवेश्‍वर! जिसकी जीविकावृत्ति नष्ट हो गयी है, ऐसे ब्राह्मण को दूसरों के द्वारा दान में मिली हुई जो भूमि है, उसको कभी नहीं छीनना चाहिये। अपना खेत छिन जाने से दुःखी हुए दीन ब्राह्मण जो आंसू बहाते हैं, वह छीनने वाले की तीन पीढ़ियों का नाश कर देता है। इन्द्र जो मनुष्य राज्य से भ्रष्ट हुए राजा को फिर राजसिंहासन पर बैठा देता है, उसका स्वर्गलोक में निवास होता है तथा वह वहाँ बड़ा सम्मान पाता है। जो भूमि गन्ने के वृक्षों से आच्छादित हो, जिस पर जौ और गेहूँ की खेती लहलहा रही हो अथवा जहाँ बैल और घोड़े आदि वाहन भरे हों, जिसके नीचे खजाना गड़ा तथा जो सब प्रकार के रत्नमय उपकरणों से अलंकृत हो, ऐसी भूमि को अपने बाहुबल से जीतकर जो राजा दान कर देता है, उसे अक्षलोक प्राप्त होते हैं। उसका वह दान भूमि यज्ञ कहलाता है।

जो वसुधा का दान करता है, वह अपने सब पापों का नाश करके निर्मल एवं सत्पुरुषों के आदर का पात्र हो जाता है तथा लोक में सज्जन पुरुष सदा ही उसका सत्कार करते हैं। इन्द्र! जैसे जल में गिरी हुई एक बूंद सब ओर फैल जाती है; उसी प्रकार दान की हुई भूमि में जितना-जितना अन्न पैदा होता है, उतना-ही-उतना उसके दान का महत्त्व बढ़ता जाता है। देवराज! युद्ध में शोभा पाने वाले जो शूरवीर, भूपाल युद्ध के मुहाने पर शत्रु के सम्मुख लड़ते हुए मारे जाते हैं, वे ब्रह्मलोक में जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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