एकषष्टितम (61) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: एकषष्टितम अध्याय: श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद
जो राजा प्रजा से कर के रूप में प्राप्त हुए धन को कोष की रक्षा करने वाले कोषाध्यक्ष आदि को देकर खजाने में रखवा लेता है और अपने कर्मचारियों को यह आज्ञा देता है कि ‘तुम लोग यज्ञ के लिये राज्य से धन वसूल कर ले आओ’ इस प्रकार यज्ञ के नाम पर जो राज्य की प्रजा को लूटता है तथा उसकी आज्ञा के अनुसार लोगों को डरा-धमका कर निष्ठुरतापूर्वक लाये हुए धन को लेकर जो उसके द्वारा यज्ञ का अनुष्ठान करता है, उस राजा के ऐसे यज्ञ की श्रेष्ठ पुरुष प्रशंसा नहीं करते हैं। इसलिये जो लोग बहुत धनी हों और बिना पीड़ा दिये ही अनुकूलतापूर्वक धन दे सकें, उनके दिये हुए अथवा वैसे ही मृदु उपाय से प्राप्त हुए धन के द्वारा यज्ञ करना चाहिये; प्रजापीड़नरूप कठोर प्रयत्न से लाये हुए धन के द्वारा नहीं। जब राजा का विधिपूर्वक राज्यभिषेक हो जाये और वह राज्यासन पर बैठ जाये, तब राजा बहुत-सी दक्षिणाओं से युक्त महान यज्ञ का अनुष्ठान करे। राजा वृद्व, बालक, दीन और अंधे मनुष्य के धन की रक्षा करे। पानी न बरसने पर जब प्रजा कुआँ खोदकर किसी तरह से सिंचाई करके कुछ अन्न पैदा करे और उसी से जीविका चलाती हो तो राजा को वह धन नहीं लेना चाहिये तथा किसी क्लेश में पड़कर रोती हुई स्त्री का भी धन न ले। यदि किसी दरिद्र का धन छीन लिया जाये तो वह राजा के राज्य का और लक्ष्मी का विनाश कर देता है। अतः राजा को चाहिये कि दीनों का धन न लेकर उन्हें महान भोग अर्पित करे और श्रेष्ठ पुरुषों को भूख का कष्ट न होने दें। जिसके स्वादिष्ट भोजन की ओर छोटे-छोटे बच्चे तरसती आंखों से देखते हों और वह उन्हें न्यायतः खाने को न मिलता हो, उस पुरुष के द्वारा इससे बढ़कर पाप और क्या हो सकता है। राजन! यदि तुम्हारे राज्य में कोई वैसा विद्वान ब्राह्मण भूख से कष्ट पा रहा हो तो तुम्हें भ्रूण-हत्या का पाप लगेगा और कोई बड़ा भारी पाप करने से मनुष्य की जो दुर्गति होती है, वही तुम्हारी भी होगी। राजा शिबि का कथन है कि ‘जिसके राज्य में ब्राह्मण या कोई और मनुष्य क्षुधा से पीड़ित हो रहा हो, उस राजा के जीवन को धिक्कार है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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