पंचचम (5) अध्याय :अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचम अध्याय: श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद
भीष्म जी कहते हैं- "राजन! इन्द्र की यह बात सुनकर धर्मात्मा शुक ने लंबी सांस खींचकर दीनभाव से यह बात कही- "शचीवल्लभ! दैव का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। देवराज! जिसके विषय में आपने प्रश्न किया है, उसकी बात सुनिये। मैंने इसी वृक्ष पर जन्म लिया और यहीं रहकर अच्छे-अच्छे गुण सीखे हैं। इस वृक्ष ने अपने बालक की भाँति मुझे सुरक्षित रखा और मेरे ऊपर शत्रुओं का आक्रमण नहीं होने दिया। निष्पाप देवेन्द्र! इन्हीं सब कारणों से मेरी इस वृक्ष के प्रति भक्ति है। मैं दयारूपी धर्म के पालन में लगा हूँ और यहाँ से अन्यत्र नहीं जाना चाहता। ऐसी दशा में आप कृपा करके मेरी सद्भावना को व्यर्थ बनाने की चेष्टा क्यों करते हैं? श्रेष्ठ पुरुषों के लिये दूसरों पर दया करना ही महान धर्म का सूचक है। दयाभाव श्रेष्ठ पुरुषों को सदा ही आनन्द प्रदान करता है। धर्म के विषय में संशय होने पर सब देवता आप से ही अपना संदेह पूछते हैं। इसीलिये आप देवाधिदेवों के अधिपति पद पर प्रतिष्ठित हैं। सहस्राक्ष! आप इस वृक्ष को मुझसे छुड़ाने के लिये प्रयत्न न कीजिये। जब यह समर्थ था, तब मैंने दीर्घकाल से इसी के आश्रय में रहकर जीवन धारण किया है और आज जब यह शक्तिहीन हो गया, तब इसे छोड़कर चल दूँ, यह कैसे हो सकता है?" तोते की इस कोमल वाणी से पाकशासन इन्द्र को बड़ी प्रसन्नता हुई। धर्मात्मा देवेन्द्र ने शुक की दयालुता से संतुष्ट हो उससे कहा- "शुक! तुम मुझसे कोई वर माँगो।" तब दया परायण शुक ने यह वर माँगा कि- "यह वृक्ष पहले की ही भाँति हरा-भरा हो जाये।" तोते की इस सुदृढ़ भक्ति और शील-सम्पति को जानकर इन्द्र को और भी प्रसन्नता हुई। उन्होंने तुरंत ही उस वृक्ष को अमृत से सींच दिया। फिर तो उसमें नये-नये पते, फल ओर मनोहर शाखाएँ निकल आयीं। तोते की दृढ़ भक्ति के कारण वह वृक्ष पूर्ववत श्रीसम्पन्न हो गया। महाराज! वह शुक भी आयु समाप्त होने पर अपने उस दयापूर्ण बर्ताव के कारण इन्द्रलोक को प्राप्त हुआ। नरेन्द्र! जैसे भक्तिमान शुक का सहवास पाकर उस वृक्ष ने सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि प्राप्त कर ली, उसी प्रकार अपने में भक्ति रखने वाले पुरुष का सहारा पाकर प्रत्येक मनुष्य अपनी सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध कर लेता है।"
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में शुक और इन्द्र का संवाद विषयक पांचवा अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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