सप्तपञ्चाशत्तम (57) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 36-44 का हिन्दी अनुवाद
नरेन्द्र! जो मनुष्य ब्राह्मणों को फूलों की माला, धूप, चन्दन, उबटन, नहाने के लिये जल और पुण्य दान करता है, वह संसार में नीरोग और सुन्दर रूप वाला होता है। राजन! जो पुरुष ब्राह्मण को अन्न और शैय्या से सम्पन्न गृहदान करता है, उसे अत्यन्त पवित्र, मनोहर और नाना प्रकार के रत्नों से भरा हुआ उत्तम घर प्राप्त होता है। जो मनुष्य ब्राह्मण को सुगन्धयुक्त विचित्र बिछौने और तकिये युक्त शैय्या का दान करता है, वह बिना यत्न के ही उत्तम कुल में उत्पन्न अथवा सुन्दर केशपाश वाली, रूपवती एवं मनोहारिणी भार्या प्राप्त कर लेता है। संग्राम भूमि में वीर शैय्या पर शयन करने वाला पुरुष ब्रह्मा जी के समान हो जाता है। ब्रह्मा जी से बढ़कर कुछ भी नहीं है- ऐसा महर्षियों का कथन है। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! पितामह का यह वचन सुनकर युधिष्ठिर का मन प्रसन्न हो उठा एवं वीरमार्ग की अभिलाषा उत्पन्न हो जाने के कारण उन्होंने आश्रम में निवास करने की इच्छा का त्याग कर दिया। पुरुषप्रवर! तब शक्तिशाली राजा युधिष्ठिर ने पांडवों से कहा- वीरमार्ग के विषय में पितामह का जो कथन है, उसी में तुम सब लोगों की रुचि होनी चाहिये। तब समस्त पांडवों तथा यशस्विनी द्रौपदी देवी ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर युधिष्ठिर के उस वचन का आदर किया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तगर्त दानधर्म पर्व में सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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