चतु:पञ्चाशत्तम (54) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: चतु:पंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद
इस तरह राजा सोच-विचार कर ही रहे थे कि महर्षि च्यवन को उनका आना ज्ञात हो गया। उन्होंने राजा की ओर देखकर कहा- 'भूपाल। शीघ्र यहाँ आओ।' उनके इस प्रकार आदेश देने पर पत्नी सहित राजा उनके पास गये तथा उन वन्दनीय महामुनि को उन्होंने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। तब उन पुरुषप्रवर बुद्धिमान मुनि ने राजा को आशीर्वाद देकर सान्त्वना प्रदान करते हुए कहा- 'आओ बैठो।' भरतवंशीनरेश! तदनन्तर स्वस्थ होकर भृगुपुत्र च्यवन मुनि अपनी स्निग्ध मधुर वाणी द्वारा राजा को तृप्त करते हुए-से बोले- 'राजन! तुमने पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेन्द्रियों और छठे मन को अच्छी तरह जीत लिया है। इसीलिये तुम महान संकट से मुक्त हुए हो। वक्ताओं में श्रेष्ठ पुत्र! तुमने भलि-भाँति मेरी आराधना की है। तुम्हारे द्वारा कोई छोटे-से-छोटा या सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अपराध भी नहीं हुआ है। राजन! अब मुझे विदा दो। जैसे मैं आया था, वैसे ही लौट जाऊंगा। राजेन्द्र! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ; अतः तुम कोई वर मांगो।' कुशिक बोले- भगवन! भृगुश्रेष्ठ। मैं आपके निकट उसी प्रकार रहा हूँ, जैसे कोई प्रज्वलित अग्नि के बीच में खड़ा हो। उस अवस्था में रहकर भी मैं जलकर भस्म नहीं हुआ, यही मेरे लिये बहुत बड़ी बात है। भृगुनन्दन। यही मैंने महान वर प्राप्त कर लिया। निष्पाप ब्रह्मर्षे! आप जो प्रसन्न हुए हैं तथा आपने जो मेरे कुल को नष्ट होने से बचा दिया, यही मुझ पर आपका भारी अनुग्रह है और इतने से ही मेरे जीवन का सारा प्रयोजन सफल हो गया। भृगुनन्दन! यही मेरे राज्य का और यही मेरी तपस्या का भी फल है। विप्रवर! यदि आपका मुझ पर प्रेम हो तो मेरे मन में एक संदेह है, उसका समाधान करने की कृपा करें।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तगर्त दानधर्म पर्व में च्यवन और कुशिक का संवाद विषयक चौवनवॉं अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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