महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 51 श्लोक 21-38

एकपञ्चाशत्तम (51) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: एकपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 21-38 का हिन्दी अनुवाद


भीष्‍म जी कहते हैं-राजन! नहुष की बात सुनकर गाय के पेट से उत्‍पन्‍न हुए वे प्रतापी महर्षि राजा तथा उनके समस्‍त मन्त्रियों को आनन्दित करते हुए बोले- ‘महाराज! ब्राह्मणों और गौओं का एक कुल है, पर ये दो रूपों में विभक्‍त हो गये हैं। एक जगह मन्‍त्र स्थित होते हैं और दूसरी जगह हविष्‍य। ब्राह्मण सब प्राणियों में उत्तम है। उनका और गौओं का कोई मूल्‍य नहीं लगाया जा सकता; इसलिये आप इनकी कीमत में एक गौ प्रदान कीजिये।'

नरेश्‍वर! महर्षि का यह वचन सुनकर मन्‍त्री और पुरोहित सहित राजा नहुष को बड़ी प्रसन्‍नता हुई। राजन! वे कठोर व्रत का पालन करने वाले भृगुपुत्र महर्षि च्यवन के पास जाकर उन्‍हें अपनी वाणी द्वारा तृप्‍त करते हुए-से बोले। नहुष ने कहा- धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ ब्रह्मर्षे! भृगुनन्‍दन! मैंने एक गौ देकर आपको खरीद लिया, अत: उठिये, उठिये, मैं यही आपका उचित मूल्‍य मानता हूँ।

च्‍यवन ने कहा- निष्‍पाप राजेन्‍द्र! अब मैं उठता हूँ। आपने उचित मूल्‍य देकर मुझे खरीदा है। अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने वाले नरेश! मैं इस संसार में गौओं के सामन दूसरा कोई धन नहीं देखता हूँ। वीर भूपाल! गौओं के नाम और गुणों का कीर्तन तथा श्रवण करना, गौओें का दान देना और उनका दर्शन करना- इनकी शास्‍त्रों में बड़ी प्रशंसा की गयी है। ये सब कार्य सम्‍पूर्ण पापों को दूर करके परम कल्‍याण की प्राप्ति कराने वाले हैं। गौएँ सदा लक्ष्‍मी जी की जड़ हैं। उनमें पाप का लेशमात्र भी नहीं है। गौएँ ही मनुष्‍यों को सर्वदा अन्‍न और देवताओं को हविष्‍य देने वाली हैं। स्‍वाहा और वषट्कार सदा गौओं में ही प्रतिष्ठित होते हैं। गौएँ ही यज्ञ का संचालन करने वाली तथा उसका मुख हैं। वे विकार रहित दिव्‍य अमृत धारण करती और दुहने पर अमृत ही देती हैं। वे अमृत की आधारभूत हैं। सारा संसार उनके सामने नतमस्‍तक होता है। इस पृथ्‍वी पर गौएँ अपनी काया और कान्ति से अग्नि के समान हैं। वे महान तेज की राशि और समस्‍त प्राणियों को सुख देने वाली हैं। गौओं का समुदाय जहाँं बैठकर निर्भयतापूर्वक साँस लेता है, उस स्‍थान की शोभा बढ़ा देता है और वहाँ के सारे पापों को खींच लेता है। गौएँ स्‍वर्ग की सीढ़ी हैं। गौएँ स्‍वर्ग में भी पूजी जाती हैं। गौएँ समस्‍त कामनाओं को पूर्ण करने वाली देवियाँ हैं। उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है।

भरतश्रेष्‍ठ! यह मैंने गौओं का माहात्‍म्‍य बताया है। इसमें उनके गुणों का दिग्‍दर्शन मात्र कराया गया है। गौओं के सम्‍पूर्ण गुणों का वर्णन तो कोई कर नहीं सकता। इसके बाद निषादों ने कहा- मुने! सज्‍जनों के साथ सात पग चलने मात्र से मित्रता हो जाती है। हमने तो आपका दर्शन किया और हमारे साथ आपकी इतनी देर तक बातचीत भी हुई; अत: प्रभो! आप हम लोगों पर कृपा कीजिये। धर्मात्‍मन! जैसे अग्निदेव सम्‍पूर्ण हविष्‍यों को आत्‍मसात कर लेते हैं, उसी प्रकार आप भी हमारे दोष-दुगुर्णों को दग्‍ध करने वाले प्र‍तापी अग्निरूप हैं।

विद्वन! हम आपके चरणों में मस्‍तक झुकाकर आपको प्रसन्‍न करना चाहते हैं। आप हम लोगों पर अनुग्रह करने के लिये हमारी दी हुई यह गौ स्‍वीकार कीजिये। अत्‍यन्‍त आपत्ति में डूबे हुए जीवों का उद्धार करने वाले पुरुषों को जो उत्तम गति प्राप्‍त होती है, वह आपको विदित है। हम लोग नरक में डूबे हुए हैं। आज आप ही हमें शरण देने वाले हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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