महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 48 श्लोक 36-50

अष्‍टचत्‍वारिंश (48) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्‍टचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 36-50 का हिन्दी अनुवाद


राजन! जैसा ऋषि-मुनियों ने उपदेश किया है, उसके अनुसार बतायी हुई वर्ण एवं बाह्य जाति की स्त्रियों में बुद्धिमान मनुष्‍य को अपने हित का भलीभाँती विचार करके ही संतान उत्‍पन्‍न करनी चाहिये, क्‍योंकि नीच योनि में उत्‍पन्‍न हुआ पुत्र भवसागर से पार जाने की इच्‍छा वाले पिता को उसी प्रकार डुबोता है, जैसे गले में बँधा हुआ पत्‍थर तैरने वाले मनुष्‍य को पानी के अतलगर्त में निमग्‍न कर देता है। संसार में कोई मूर्ख हो या विद्वान, काम और क्रोध के वशीभूत हुए मनुष्‍य को नारियाँ अवश्‍य ही कुमार्ग पर पहुँचा देती हैं। इस जगत में मनुष्‍यों को कलंकित कर देना नारियों का स्‍वभाव है, अत: विवेकी पुरुष युवती व स्त्रियों में अधिक आसक्‍त नहीं होते हैं।

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! जो चारों वर्णों से बहिष्‍कृत, वर्णसंकर मनुष्‍य से उत्‍पन्‍न और अनार्य होकर भी ऊपर से देखने में आर्य-सा प्रतीत हो रहा हो, उसे हम लोग कैसे पहचान सकते हैं?

भीष्‍म जी ने कहा- युधिष्ठिर! जो कलुषित योनि में उत्‍पन्‍न हुआ है, वह ऐसी नाना प्रकार की चेष्‍टाओं से युक्‍त होता है, जो सत्‍पुरुषों के आचार से विपरीत है; अत: उसके कर्मों से ही उसकी पहचान होती है। इसी प्रकार सज्‍जनोचित आचरणों से योनि की शुद्धता का ज्ञान प्राप्‍त करना चाहिये। इस जगत में अनार्यता, अनाचार, क्रूरता और कर्मण्‍यता आदि दोष मनुष्‍य को कलुषित योनि से उत्‍पन्‍न (वर्णसंकर) सिद्ध करते हैं। वर्णसंकर पुरुष अपने पिता या माता के अथवा दोनों के ही स्‍वभाव का अनुसरण करता है। वह किसी तरह अपनी प्रकृति को छिपा नहीं सकता। जैसे बाघ अपनी चित्र-विचित्र खाल और रूप के द्वारा माता-पिता के समान ही होता है, उसी प्रकार मनुष्‍य भी अपनी योनि का अनुसरण करता है। यद्यपि कुल और वीर्य गुप्‍त रहते हैं अर्थात कौन किस कुल में और किसके वीर्य से उत्‍पन्‍न हुआ है, यह बात ऊपर से प्रकट नहीं होती है तो भी जिसका जन्‍म संकर-योनि से हुआ है, वह मनुष्‍य थोड़ा-बहुत अपने पिता के स्‍वभाव का आश्रय लेता ही है। जो कृत्रिम मार्ग का आश्रय लेकर श्रेष्‍ठ पुरुषों के अनुरूप आचरण करता है, वह सोना है या काँच; शुद्ध वर्ण का है या संकर वर्ण का? इसका निश्‍चय करते समय उसका स्‍वभाव ही सब कुछ बता देता है।

संसार के प्राणी नाना प्रकार के आचार-व्‍यवहार में लगे हुए हैं, भाँति-भाँति के कर्मों में तत्‍पर हैं; अत: आचरण के सिवा ऐसी कोई वस्‍तु नहीं है, जो जन्‍म के रहस्‍य को साफ तौर पर प्रकट कर सके। वर्णसंकर को शास्‍त्रीय बुद्धि प्राप्‍त हो जाये तो भी वह उसके शरीर को स्‍वभाव से नहीं हटा सकती। उत्तम, मध्‍यम या निकृष्‍ट जिस प्रकार के स्‍वभाव से उसके शरीर का निर्माण हुआ है, वैसा ही स्‍वभाव उसे आनन्‍ददायक जान पड़ता है। ऊंची जाति का मनुष्‍य भी यदि उत्तमशील अर्थात आचरण से हीन हो तो उसका सत्‍कार न करें और शूद्र भी यदि धर्मज्ञ एवं सदाचारी हो तो उसका विशेष आदर करना चाहिये। मनुष्‍य अपने शुभाशुभ कर्म, शील, आचरण और कुल के द्वारा अपना परिचय देता है। यदि उसका कुल नष्‍ट हो गया हो तो भी वह अपने कर्मों द्वारा उसे फिर शीघ्र ही प्रकाश में ला देता है।

इन सभी ऊपर बतायी हुई नीच योनियों में तथा अन्‍य नीच जातियों में भी विद्वान पुरुष को संतानोत्‍पत्ति नहीं करनी चाहिये। उनका सर्वथा परित्‍याग करना ही उचित है।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्‍तर्गत दानधर्म पर्व में विवाह धर्म के प्रसंग में वर्णसंकर की उत्‍पत्ति का वर्णन विषयक अड़तालीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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