चतुश्चत्वारिंश (44) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुश्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 25-34 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! यदि एक वर से कन्या का विवाह पक्का करके उसका मूल्य ले लिया गया हो और पीछे उससे भी श्रेष्ठ धर्म, अर्थ और काम से सम्पन्न अत्यन्त योग्य वर मिल जाये तो पहले जिससे मूल्य लिया गया है, उससे झूठ बोलना-उसको कन्या देने से इंकार कर देना चाहिये या नहीं? इसमें दोनों दशाओं में दोष प्राप्त होता है। यदि बन्धुजनों की सम्मति से मूल्य लेकर निश्चित किये हुए विवाह को उलट दिया जाये तो वचन-भंग का दोष लगता है और श्रेष्ठ वर का उल्लघंन करने से कन्या के हित को हानि पहुँचाने का दोष प्राप्त होता है। ऐसी दशा में कन्यादाता क्या करे, जिससे वह कल्याण का भागी हो? हम तो सम्पूर्ण धर्मों में इस कन्यादानरूप धर्म को ही अधिक चिन्तन अर्थात विचार के योग्य मानते हैं। हम इस विषय में यथार्थ तत्व को जानना चाहते हैं। आप हमारे पथ प्रदर्शक होइये। इन सब बातों को स्पष्ट रूप से बताइये। मैं आपकी बातें सुनने से तृप्त नहीं हो रहा हूँ। अत: आप इस विषय का प्रतिपादन कीजिये। भीष्म जी ने कहा- राजन! मूल्य दे देने से ही विवाह का अन्तिम निश्चय नहीं हो जाता (उसमें परिवर्तन की सम्भावना रहती ही है)। यह समझकर ही मूल्य देने वाला मूल्य देता है और फिर उसे वापस नहीं माँगता। सज्जन पुरुष कभी-कभी मूल्य लेकर भी किसी विशेष कारणवश कन्यादान नहीं करते हैं। कन्या के भाई-बन्धु किसी से मूल्य तभी माँगते हैं, जब वह विपरीत गुण (अधिक अवस्था आदि) से युक्त होता है। यदि वर को बुलाकर कहा जाये कि ‘तुम मेरी कन्या को आभूषण पहनाकर इसके साथ विवाह कर लो' और ऐसा कहने पर वह उसके लिए आभूषण देकर विवाह करे तो यह धर्मानुकूल ही है। क्योंकि इस प्रकार जो कन्या के लिये आभूषण लेकर कन्यादान किया जाता है, वह न तो मूल्य है और न विक्रय ही; इसलिये कन्या के लिये कोई वस्तु स्वीकार करके कन्या का दान करना सनातन धर्म है। जो लोग भिन्न–भिन्न व्यक्तियों से कहते हैं कि ‘मैं आपको अपनी कन्या दूँगा', जो कहते हैं ‘नहीं दूँगा’ और जो कहते हैं ‘अवश्य दूँगा’ उनकी ये सभी बातें कन्या देने के पहले नहीं कही हुई के ही तुल्य हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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