त्रिचत्वारिंश (43) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रिचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 19-27 का हिन्दी अनुवाद
नृपश्रेष्ठ! महामनस्वी पुरुषों द्वारा ही ऐसी स्त्रियों की इस प्रकार रक्षा की जा सकती है; अन्यथा स्त्रियों की रक्षा असम्भव है। पुरुषसिंह! ये स्त्रियाँ तीखे स्वभाव की तथा दुस्सह शक्तिशाली होती हैं। कोई भी पुरुष इनका प्रिय नहीं है। मैथुन काल में जो इनका साथ देता है, वही उतने ही समय के लिये प्रिय होता है। भरतश्रेष्ठ! पाण्डुनन्दन! ये स्त्रियाँ कृत्याओं के समान मनुष्यों के प्राण लेने वाली होती हैं। उन्हें जब पहले पुरुष स्वीकार कर लेता है, तब वे आगे चलकर दूसरे के स्वीकार करने योग्य भी बन जाती हैं, अर्थात व्यभिचार दोष के कारण एक पुरुष को छोड़कर दूसरे पर आसक्त हो जाती हैं। किसी एक ही पुरुष में इनका सदा अनुराग नहीं बना रहता। नरेश्वर! मनुष्यों को स्त्रियों के प्रति न तो विशेष आसक्त होना चाहिये और न उनसे ईर्ष्या ही करनी चाहिये। वैराग्यपूर्वक धर्म का आश्रय लेकर पर्व आदि दोष का त्याग करते हुए ऋतु स्नान के पश्चात उनका उपभोग करना चाहिये। कौरवनन्दन! इसके विपरीत बर्ताव करने वाला मनुष्य विनाश को प्राप्त होता है। नृपश्रेष्ठ! सर्वत्र सब प्रकार से मोक्ष का ही सम्मान किया जाता है। नरेश्वर! एकमात्र विपुल ने ही स्त्री की रक्षा की थी। इस त्रिलोकी में दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो युवती स्त्रियों की इस प्रकार रक्षा कर सके।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तगर्त दानधर्म पर्व में विपुल का उपाख्यान विषयक तैंतालसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज