द्वितीय (2) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 64-82 का हिन्दी अनुवाद
इसी समय मृत्यु हाथ में लोहदण्ड लिये सुदर्शन के पीछे आकर खड़ी हो गयी। वह सोचती थी कि अब तो यह अपनी प्रतिज्ञा तोड़ बैठेगा। इसलिये इसे यहीं मार डालूँगी। परंतु सुदर्शन मन, वाणी, नेत्र और क्रिया से भी ईर्ष्या तथा क्रोध का त्याग कर चुके थे। वे हँसते-हँसते यों बोले- "प्रियवर! आपकी सुरत कामना पूर्ण हो। इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता है; क्योंकि घर पर आये हुए अतिथि का पूजन करना गृहस्थ के लिये सबसे बड़ा धर्म है। जिस गहस्थ के घर पर आया हुआ अतिथि पूजित होकर जाता है, उसके लिये उससे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है- ऐसा मनीषी पुरुष कहते हैं। मेरे प्राण, मेरी पत्नी तथा मेरे पास और जो कुछ धन-दौलत है, वह सब मेरी ओर से अतिथियों के लिये निछावर है, ऐसा मैंने व्रत ले रखा है। ब्रह्मन! मैंने जो यह बात कही है, इसमें संदेह नहीं है। इस सत्य को सिद्ध करने के लिये मैं स्वयं ही अपने शरीर को छूकर शपथ खाता हूँ। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ ब्राह्मण! पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, नेत्र, बुद्धि, आत्मा, मन, काल और दिशाएँ- ये दस गुण (वस्तुएँ) सदा ही प्राणियों के शरीर में स्थित होकर उनके पुण्य और पापकर्म को देखा करते हैं। आज मेरी कही हुर्इ यह वाणी यदि मिथ्या नहीं है तो इस सत्य के प्रभाव से देवता मेरी रक्षा करें, अथवा मिथ्या होने पर मुझे जलाकर भस्म कर डालें।" भरतनन्दन! सुदर्शन के इतना कहते ही सम्पूर्ण दिशाओं से बारंबार आवाज़ आने लगी- "तुम्हारा कथन सत्य है। इसमें झूठ का लेश भी नहीं है। तत्पश्चात वह ब्राह्मण उस आश्रम से बाहर निकला। वह अपने शरीर से वायु की भाँति पृथ्वी और आकाश को व्याप्त करके स्थित हो गया। शिक्षा के अनुकूल उदात्त आदि स्वर से तीनों लोकों को प्रतिध्वनित करते हुए उस ब्राह्मण ने पहले धर्मज्ञ सुदर्शन को सम्बोधित करके उससे इस प्रकार कहा- "निष्पाप सुदर्शन! तुम्हारा कल्याण हो। मैं धर्म हूँ और तुम्हरी परीक्षा लेने के लिये यहाँ आया हूँ। तुममें सत्य है, यह जानकर मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। तुमने इस मृत्यु को, जो सदा तुम्हारा छिद्र ढूँढती हुई तुम्हारे पीछे लगी रहती थी, जीत लिया। तुमने अपने धैर्य से मृत्यु को वश में कर लिया है। पुरुषोत्तम! तीनों लोकों में किसी की भी ऐसी शक्ति नहीं है, जो तुम्हारी इस सती-साध्वी पतिव्रता पत्नी की ओर कलुषित भावना से आँख उठाकर देख भी सके। यह तुम्हारे गुणों से तथा अपने पतिव्रत्य के गुणों द्वारा भी सदा सुरक्षित है। कोई भी इसका पराभव नहीं कर सकता। यह जो बात अपने मुँह से निकालेगी, वह सत्य ही होगी। मिथ्या नहीं हो सकती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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