महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 2 श्लोक 23-43

द्वितीय (2) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 23-43 का हिन्दी अनुवाद


तब अग्नि देव रुष्‍ट होकर राजा के आरम्‍भ हुए यज्ञ में से अदृश्‍य हो गये। इससे राजा को बड़ा दु:ख हुआ और उन्‍होंने ब्राह्मणों से कहा- "विप्रवरों! मुझसे या आप लोगों से कौन-सा ऐसा दुष्‍कर्म बन गया है, जिससे अग्नि देव दुष्‍ट मनुष्‍यों के प्रति किये गये उपकार के समान नष्‍ट हो गये हैं। हम लोगों का थोड़ा-सा अपराध नहीं है, जिससे अग्नि देव अदृश्‍य हो गये हैं। वह अपराध आप लोगों का है या मेरा? इसका ठीक-ठीक विचार करें?

भरतश्रेष्‍ठ! राजा की यह बात सुनकर उन ब्राह्मणों नें शौच-संतोष आदि नियमों के पालनपूर्वक मौन हो भगवान अग्नि देव की शरण ली। तब भगवान हव्‍यवाहन ने रात में अपना तेजस्‍वी रूप प्रकट करके शरत्‍काल के सूर्य के सदृश द्युतिमान हो उन ब्राह्मणों को दर्शन दिया। उस समय महात्‍मा अग्नि ने उन श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों से कहा- "मैं दुर्योधन की पुत्री का अपने लिये वरण करता हूँ।" यह सुनकर आश्‍चर्यचकित हुए सब ब्राह्मणों ने सबेरे उठकर, अग्नि देव ने जो कहा था, वह सब कुछ राजा से निवेदन किया। ब्रह्मवादी ऋषियों का यह वचन सुनकर राजा को वड़ा हर्ष हुआ और उन बुद्धिमान नरेश ने ‘तथास्‍तु‘ कहकर अग्नि देव का प्रस्‍ताव स्‍वीकार कर लिया। तदनन्‍तर उन्‍होंने कन्‍या के शुल्‍क रूप से भगवान अग्नि से याचना की- "चित्रभानो! इस नगरी में आपका सदा निवास बना रहे।" यह सुनकर भगवान अग्नि ने राजा से कहा- "एवमस्‍तु" (ऐसा ही होगा)। तभी से आज तक माहिष्‍मती नगरी में अग्नि देव का निवास बना हुआ है।

सहदेव ने दक्षिण दिशा की विजय करते समय वहाँ अग्नि देव को प्रत्‍यक्ष देखा था। अग्नि देव के वहाँ रहना स्‍वीकार कर लेने पर राजा दुर्योधन ने अपनी कन्‍या को सुन्‍दर वस्‍त्र पहनाकर नाना प्रकार के आभूषणों से अलंकृत करके महात्‍मा अग्नि के हाथ में दे दिया। अग्नि ने वेदोक्‍त विधि से राजकन्‍या सुदर्शना को उसी प्रकार ग्रहण किया, जैसे वे यज्ञ में वसुधारा ग्रहण करते हैं। सुदर्शना के रूप, शील, कुल, शरीर की आकृति और कान्ति को देखकर अग्नि देव बहुत प्रसन्‍न हुए और उन्‍होंने उसमें गर्भाधान करने का विचार किया। कुछ काल के पश्‍चात उसके गर्भ से अग्नि के एक पुत्र हुआ, जिसका नाम सुदर्शन रखा गया। वह रूप में पूर्ण चन्‍द्रमा के समान मनोहर था और उसे बचपन में ही सर्वस्‍वरूप सनातन परब्रह्म का ज्ञान हो गया था। उन दिनों राजा नृग के पितामह ओघवान इस पृथ्‍वी पर राज्‍य करते थे। उनके ओघवती नाम वाली एक कन्‍या और ओघरथ नाम वाला एक पुत्र था। ओघवती देवकन्‍या के समान सुन्‍दरी थी। ओघवान ने अपनी उस पुत्री को विद्वान सुदर्शन को पत्‍नी बनाने के लिये दे दिया।

राजन! सुदर्शन उसके साथ गृहस्‍थ-धर्म का पालन करने लगे। उन्‍होंने ओघवती के साथ कुरुक्षेत्र में निवास किया। प्रजानाथ! प्रभो! उद्दीप्‍त तेज वाले उस बुद्धिमान सुदर्शन ने यह प्रतिज्ञा कर ली कि मैं गृहस्‍थ-धर्म का पालन करते हुए ही मृत्‍यु को जीत लूँगा। राजन! अग्निकुमार सुदर्शन ने ओघवती से कहा- "देवि! तुम्‍हें अतिथि के प्रतिकूल किसी तरह का कोई कार्य नहीं करना चाहिये। जिस-जिस वस्‍तु से अतिथि संतुष्‍ट हो, वह वस्‍तु तुम्‍हें सदा ही उसे देनी चाहिये। यदि अतिथि के संतोष के लिये तुम्‍हें अपना शरीर भी देना पड़े तो मन में कभी अन्‍यथा विचार न करना।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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