सप्तविंश (27) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तविंश अध्याय: श्लोक 20-30 का हिन्दी अनुवाद
पिता से ऐसा कहकर मतंग तपस्या के लिये दृढ़ निश्चय करके घर से निकल पड़ा और एक महान वन में जाकर वहाँ बड़ी भारी तपस्या करने लगा। तपस्या में संलग्न हो मतंग ने देवताओं को संतप्त कर दिया। वह भलीभाँति तपस्या करके सुख से ही ब्राह्मणत्वरूपी अभीष्ट स्थान को प्राप्त करना चाहता था। उसे इस प्रकार तपस्या में संलग्न देख इन्द्र ने कहा- 'मतंग! तुम क्यों मानवीय भोगों का परित्याग करके तपस्या कर रहे हो? मैं तुम्हें वर देता हूँ। तुम जो चाहते हो, उसे प्रसन्नतापूर्वक मांग लो। तुम्हारे हृदय में जो कुछ पाने की अभिलाषा हो, वह सब शीघ्र बताओ।' मतंग ने कहा- मैंने ब्राह्मणत्व प्राप्त करने की इच्छा से यह तपस्या प्रारम्भ की है। उसे पाकर ही यहाँ से जाऊँ, मैं यही वर चाहता हूँ। भीष्म जी कहते हैं- भारत! मतंग की यह बात सुनकर इन्द्र देव ने कहा- 'मतंग! तुम जो ब्राह्मणत्व मांग रहे हो, यह तुम्हारे लिये दुर्लभ है। जिनका अन्तःकरण शुद्ध नहीं है अथवा जो पुण्यात्मा नहीं है, उनके लिये ब्राह्मणत्व की प्राप्ति असम्भव है। दुर्बुद्धे! तुम ब्राह्मणत्व मांगते-मांगते मर जाओगे तो भी वह नहीं मिलेगा; अतः इस दुराग्रह से जितना शीघ्र सम्भव हो निवृत्त हो जाओ। सम्पूर्ण भूतों में श्रेष्ठता ही ब्राह्मणत्व है और यही तुम्हारा अभीष्ट प्रयोजन है, परंतु यह तप उस प्रयोजन को सिद्ध नहीं कर सकता; अतः इस श्रेष्ठ पद की अभिलाषा रखते हुए तुम शीघ्र ही नष्ट हो जाओगे। देवताओं, असुरों और मनुष्यों में भी जो परम पवित्र माना गया है, उस ब्राह्मणत्व को चाण्डाल योनि में उत्पन्न हुआ मनुष्य किसी तरह नहीं पा सकता।'
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में इन्द्र और मतंग का संवाद विषयक सताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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