महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 26 श्लोक 41-62

षड्-विंश (26) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: षड्-विंश अध्याय: श्लोक 41-62 का हिन्दी अनुवाद


जो मनुष्य दस हज़ार युगों तक नीचे सिर करके वृक्ष में लटका रहे और जो इच्छानुसार गंगा जी के तट पर निवास करे, उन दोनों में गंगा जी पर निवास करने वाला ही श्रेष्ठ है। द्विजश्रेष्ठ! जैसे आग में डाली हुई रूई तुरंत जलकर भस्म हो जाती है, उसी प्रकार गंगा में गोता लगाने वाले मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। इस संसार में दुःख से व्याकुल चित्त होकर अपने लिये कोई आश्रय ढूंढ़ने वाले समस्त प्राणियों के लिये गंगा जी के समान कोई दूसरा सहारा नहीं है। जैसे गरुड़ को देखते ही सारे सर्पों के विष झड़ जाते हैं, उसी प्रकार गंगा जी के दर्शन मात्र से मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता है। जगत में जिनका कहीं आधार नहीं है तथा जिन्होंने धर्म की शरण नहीं ली है, उनका आधार और उन्हें शरण देने वाली श्री गंगा जी ही हैं। वे ही उसका कल्याण करने वाली तथा कवच की भाँति उसे सुरक्षित रखने वाली हैं। जो नीच मानव अनेक बड़े-बड़े अमंगलकारी पापकर्मों से ग्रस्त होकर नरक में गिरने वाले हैं, वे भी यदि गंगा जी की शरण में आ जाते हैं तो ये मरने के बाद उनका उद्धार कर देती हैं।

बुद्धिमानों में श्रेष्ठ ब्राह्मण! जो लोग सदा गंगा जी की यात्रा करते हैं, उन पर निश्चय ही इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता तथा मुनि लोग पृथक-पृथक कृपा करते आये हैं। विप्रवर! विनय और सदाचार से हीन अमंगलकारी नीच मनुष्य भी गंगा जी की शरण में जाने पर कल्याणस्वरूप हो जाते हैं। जैसे देवताओं को अमृत, पितरों को स्वधा और नागों को सुधा तृप्त करती है, उसी प्रकार मनुष्यों के लिये गंगाजल ही पूर्ण तृप्ति का साधन है। जैसे भूख से पीड़ित हुए बच्चे माता के पास जाते हैं, उसी प्रकार कल्याण की इच्छा रखने वाले प्राणी इस जगत में गंगा जी की उपासना करते हैं। जैसे ब्रह्मलोक सब लोकों से श्रेष्ठ बताया जाता है, वैसे ही स्नान करने वाले पुरुषों के लिये गंगा जी ही सब नदियों में श्रेष्ठ कही गयी हैं। जैसे धेनुस्वरूपा पृथ्वी उपजीवी देवता आदि के लिये आदरणीय है, उसी प्रकार इस जगत में गंगा समस्त उपजीवी प्राणियों के लिये आदरणीय हैं। जैसे देवता सत्र आदि यज्ञों द्वारा चन्द्रमा और सूर्य में स्थित अमृत से आजीविका चलाते हैं, उसी प्रकार संसार के मनुष्य गंगाजल सहारा लेते है।

गंगा जी के तट से उड़े हुए बालुका कणों से अभिषिक्त हुए अपने शरीर को ज्ञानी पुरुष स्वर्गलोक में स्थित हुआ-सा शोभा सम्पन्न मानता है। जो मनुष्य गंगा के तीर की मिट्टी अपने मस्तक में लगाता है, वह अज्ञानान्धकार का नाश करने के लिये सूर्य के समान निर्मल स्वरूप धारण करता है। गंगा की तरंगमालाओं से भीगकर बहने वाली वायु जब मनुष्य के शरीर का स्पर्श करती है, उसी समय वह उसके सारे पापों को नष्ट कर देती है। दुर्व्यसनजनित दुःखों से संतप्त होकर मरणासन्न हुआ मनुष्य भी यदि गगा जी का दर्शन करे तो उसे इतनी प्रसन्नता होती है कि उसकी सारी पीड़ा तत्काल नष्ट हो जाती है। हंसों की मीठी वाणी, चक्रवाकों के सुमधुर शब्द तथा अन्यान्य पक्षियों के कलरवों द्वारा गंगा जी गन्धर्वों से होड़ लगाती हैं तथा अपने ऊँचे-ऊँचे तटों द्वारा पर्वतों के साथ स्पर्धा करती हैं। हंस आदि बहुसंख्यक एवं विविध पक्षियों से घिरी हुई तथा गौओं के समुदाय से व्याप्त हुई गंगा जी को देखकर मनुष्य स्वर्गलोक को भी भूल जाता है। गंगा जी के तट पर निवास करने से मनुष्यों को जो परम प्रीति-अनुपम आनन्द मिलता है, वह स्वर्ग में रहकर सम्पूर्ण भोगों का अनुभव करने वाले पुरुष को भी नहीं प्राप्त हो सकता। मन, वाणी और क्रिया द्वारा होने वाले पापों से ग्रस्त मनुष्य भी गंगा जी का दर्शन करने मात्र से पवित्र हो जाता है, इसमे मुझे संशय नहीं है। गंगा जी का दर्शन, उनके जल का स्पर्श तथा उस जल के भीतर स्नान करके मनुष्य सात पीढ़ी पहले के पूर्वजों का और सात पीढ़ी आगे होने वाली संतानों का तथा इनसे भी ऊपर के पितरों और संतानों का उद्धार कर देता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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